डाॅ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन(1905-1988 )
डा. भदंत आनंद कोसल्यायान के बचपन का नाम हरिनामदास था। आपका जन्म 5 जन. 1905 को चंडीगढ़ के पास सुहाना नामक गांव के एक खत्री परिवार में हुआ था। आपके पिता रामसरनदास अम्बाला में हाईस्कूल के हेडमास्टर थे।
हरिनामदास के माता-पिता का देहान्त बचपन में ही हो गया था। उनकी शिक्षा बड़ी कठिनाई में हुई थी। इसी बीच हरिनामदास की मुलाकात एक साधू से हुई, जिसका नाम रामोदार दास ( राहुल सांसकृत्यायन ) था। इस साधू ने बालक हरिनामदास को परिव्राजक(सामणेर) के कपड़े देते हुए बुध्द का मार्ग अपनाने को कहा। अब हरिनामदास का नाम बदलकर विश्वनाथ हो गया। साधू ने विश्वनाथ को चारिका करते हुए बौध्द तीर्थों की यात्रा करने की सलाह दी। गुरू की आज्ञा का पालन करते हुए विश्वनाथ ने भारत में बौध्द तीर्थों की यात्रा की।
हरिनामदास के माता-पिता का देहान्त बचपन में ही हो गया था। उनकी शिक्षा बड़ी कठिनाई में हुई थी। इसी बीच हरिनामदास की मुलाकात एक साधू से हुई, जिसका नाम रामोदार दास ( राहुल सांस्कृत्यायन ) था। इस साधू ने बालक हरिनामदास को परिव्राजक( सामणेर) के कपड़े देते हुए बुध्द का मार्ग अपनाने को कहा। अब हरिनामदास का नाम बदलकर विश्वनाथ हो गया। साधू ने विश्वनाथ को चारिका करते हुए बौध्द तीर्थों की यात्रा करने की सलाह दी। गुरू की आज्ञा का पालन करते हुए विश्वनाथ ने भारत में बौध्द तीर्थों की यात्रा की।
भदन्त जी ने 23 वर्ष की उम्र में सिरिलंका विद्यालंकार विहार के प्रमुख धम्मानंद महास्थविर से प्रवज्या ली। अब विश्वनाथ से उनका नाम आनन्द कौशल्यायन हो गया। अभी उपसम्पदा लिए 5 वर्ष भी नहीं हुए थे कि वे महाबोधी सभा के संस्थापक अनागारिक धम्मपाल के साथ धम्म कार्य से लंदन गए।
भंतेजी स्वदेश आकर फिर धम्म-कार्य में लग गए। सारनाथ में आकर उन्होंने महाबोधी सभा से निकलने वाली पत्रिका ‘धर्मदूत’ का सम्पादन किया। भदन्त जी की प्रवज्या सिरिलंका में हई थी वे अकसर वहां जाते रहते थे। बाबासाहेब आम्बेडकर से उनकी मुलाकात सन् 1950 में सिरिलंका में ही हुई थी। अभिधम्मसंगहो’ जिसे महास्थविर अनिरुध्द ने 11वीं शताब्दी में लिखा था, का अनुवाद आपने किया।
भदन्त जी सन् 1969 में ‘आम्बेडकर समारक समिति’ के निमंत्रण पर नागपुर आए तो फिर वे यहीं के होकर रह गए। यद्यपि, किन्हीं अज्ञात कारणों से सन् 1982 में उन्हें दीक्षाभूमि छोड़नी पड़ी थी। बाद में भदन्तजी ने बुध्दभूमी महाविहार का निर्माण कर सन् 1985 में उसे अपनी कर्त्तव्य- स्थली बनाया।
अप्रेल 88 में भदन्तजी ने इलाहाबाद हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की थी। 22 जून 1988 को इस मनीषी ने इस संसार से विदा ली।
भदन्त जी ने लगभग 60 पुस्तकें लिखी हैं- अंगुत्तर निकाय 4 भागों में, जातक कथा 6 भागों में, महावंस, दर्शन(वेद से मार्क्स तक), क्राति के अग्रदूत; भगवान बुध्द, बौध्द धर्म की महान देन अनात्मवाद, बौध्द धर्म; एक बुध्दिवादी अध्ययन, श्रीलंका, धर्म के नाम पर, मनुस्मृति क्यों जलायी गई ?, अग्नि-परीक्षा किसकी?, हिन्दू समाज किधर?, राम कहानी; राम की जबानी, भगवदगीता की बुध्दिवादी समीक्षा, तुलसी के तीन पात, रामचरितमानस में ब्राह्मणशाही और नारी निन्दा,भगवदगीता और धम्मपद, बाबासाहेब; यदि बाबा न होते, ‘दी बुध्दा एण्ड धम्मा’ का हिन्दी अनुवाद ‘भगवान बुध्द और उनका धर्म’ आदि ( भदन्त आनन्द कौसल्यायन; जीवन और कार्य :लेखक मुन्शीलाल गौतम)।
अंगुत्तर निकाय का अनुवाद करते समय इसके तिक-निपात में आए ‘कालाम सुत्त’ जिसे उन्होंने ‘ मानव समाज के स्वतंत्र-चिंतन तथा स्वतंत्र -आचरण का घोषणा-पत्र’ कहा है, की चर्चा करते हुए ग्रंथ की प्रस्तावना में भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने लिखा है- इन पंक्तियों का लेखक तो इस सूक्त का विशेष ऋणी है, क्योंकि आज से पूरे 30 वर्ष पूर्व, भगवान का जो उपदेश विशेष रूप उसे उसके त्रिशरण गमन का निमित्त कारण हुआ था, यही वही कालाम सुत्त ही था।
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