डॉ. राममनोहर लोहिया अपनी किताब 'हिन्दू बनाम हिन्दू' में लिखते हैं -
"मैं दावे के साथ कह सकता हूँ, अँग्रेजों के समय का गुलामी काल, गुलामों के गुलाम शूद्रों (sc, st, obc) के लिये वरदान साबित हुआ है. हम प्राचीन काल की चाहे जितनी भी डींग हाँक लें, लेकिन अगर अँग्रेजों का सम्पर्क न हुआ होता, तो हम बहुत पिछड़े रहते! भारतीय इतिहास के पाँच हजार सालों में एक भी विद्वान शूद्रों में न हो सका, जबकि अँग्रेजों के लगभग 200 साल के गुलामी काल में महात्मा फुले, संत गाडगे, डाॅ. अम्बेडकर,
मेघनाथ साहा, राधा विनोद पाल, सुरेन्द्र नाथ शील और अन्य कितने ही नाम जिन्हें मैं नहीं जानता, शूद्र समाज (sc, st, obc) मे निर्मित हुये उसका श्रेय अँग्रेजों को जाता है क्योंकि ब्राह्मणों ने इनको शिक्षा से वंचित रखा था. परंतु अँग्रेजों ने इनके लिए स्कूल शुरू किये इसके कारण अँग्रेजों से ब्राम्हण नफरत करने लगे थे ये कहकर की हमारे बनाये नियमों का अँग्रेज उल्लंघन कर रहे है,
हमारे धार्मिक बातों मे अँग्रेज हस्तक्षेप करने लगे हैं! क्या अपने धर्म के किसी विशिष्ट वर्ग को शिक्षा से वंचित रखना, उन पर अमानवीय अत्याचार करना धर्म हो सकता है? यदि 1857 का विद्रोह सफल हो जाता तो निश्चित रूप से शूद्रों (sc, st, obc) को सामाजिक उत्थान के इतने अवसर न मिलते, जितने की 1857 के बाद अँग्रेजों की गुलामी काल में मिले हैं! यह अँग्रेजों की गुलामी का काल था, जब एक ब्राह्मण चपरासी बना तथा शूद्र एक कलेक्टर. और यही बात ब्राह्मण को कांटे की तरह चुभने लगी थी और आज भी चुभती है! ब्राह्मण ये बखूबी जानता था कि अँग्रेज अगर और 50 साल भारत में रह गये तो शूद्र (sc, st, obc) सत्ता मे और हम सत्ता के बाहर हो जायेंगे क्योकि इनकी आबादी देश मे लगभग 85% परसेंट है और हम ब्राम्हनों की केवल 3.5 % परसेंट इसलिए ब्राह्मणों ने अँग्रेज को भगाने का आंदोलन राष्ट्रवाद की आड़ मे चलाया था. और देश के शुद्रों को आपस मे जाति धर्म के नाम पर लड़वा कर सालों से शासन करता रहा !"
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