चक्षु होते हुए भी अकुशल धर्म(पदार्थ) न देखना, कान होते हुए भी अकुशल शब्द न सुनना, वाचा होते हुए भी अकुशल शब्द न बोलना; शायद, यही अष्टांगी मार्ग है.
आईए देखें, बुद्ध के उपस्थापक और धम्माधिकारी आनन्द, इसे सहधर्मी भिक्खुओं को कैसे समझाते हैं-
एकं समयं आयस्मा आनन्दो कोसम्बियं विहरति घोसितारामे।
एक समय आयु. आनन्द कोसम्बी के घोसिताराम में विहार कर रहे थे।
तत्र खो आयस्मा आनन्दो भिक्खू आमन्तेसि- ‘‘आवुस भिक्खवे’’ति।
वहां आयु. आनन्द ने भिक्खुओं को सम्बोधित किया- ‘‘आवुस भिक्खुओं!’’
‘‘आवुसो’’ति खो ते भिक्खू आयस्मतो आनन्दस्स पच्चसोसुं।
उन भिक्खुओं ने आयु. आनन्द को ‘‘आयुस्मान’’ कह कर प्रतिवचन दिया।
आयस्मा आनन्दो एतदवोच-
आयु. आनन्द ने यह कहा-
‘‘अच्छरियं, आवुसो, अब्भुतं, आवुसो!
आवुस यह अद्भुत है। यह आश्चर्य है कि-
याव च इदं तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन
उन भगवान जानकार, देखकर अरहत सम्यक सम्बुद्ध ने
सम्बाधे ओकासाधिगमो अनुबुद्धो
बाधाओं के बीच में मार्ग(अवकाश) निकाल लिया
सत्तानं विसुद्धिया सोक परिदेवानं समतिक्कमाय
प्राणियों की विशुद्धि के लिए, शोक, रोना-पीटना शांत करने के लिए
दुक्ख दोमनस्सानं अत्थंगमाय, ञायस्स अधिगमाय, निब्बानस्स सच्छिकिरियाय-
दुक्ख-दौर्मनस्य को अस्त करने, ज्ञान को प्राप्त करने, निर्वाण का साक्षात्कार करने के लिए-
तदेव नाम चक्खुं भविस्सति ते रूपा तं च आयतनं, नो पटिसंवेदिस्सति।
यही आंख रहेगी, यही रूप(आंख का विषय) रहेगा, किन्तु, चक्षु आयतन की संवेदना नहीं रहेगी।
तदेव नाम सोतं भविस्सति ते सद्दा तं च आयतनं नो पटिसंवेदिस्सति।
यही कान रहेंगे यही शब्द(कान के विषय) रहेंगे, किन्तु, कान आयतन की संवेदना नहीं रहेगी।
तदेव नाम घान भविस्सति ते गन्धा तं च आयतनं, नो पटिसंवेदिस्सति।
यही घ्राण रहेगा यही गन्ध( घ्राण के विषय) रहेंगे, किन्तु, घ्राण आयतन की संवेदना नहीं रहेगी।
सा एव नाम जिव्हा भविस्सति ते रस्सा तं च आयतनं, नो पटिसंवेदिस्सति।
यही जिव्हा रहेगीे यही रस(जिव्हा के विषय) रहेंगे, किन्तु, जिव्हा आयतन की संवेदना नहीं रहेगी।
सो एव नाम कायो भविस्सति ते फोटब्बा तं च आयतनं, नो पटिसंवेदिस्सति।
यही काया रहेगी, यही (काया के विषय) स्पर्श रहेंगे, किन्तु, काया आयतन की संवेदना नहीं रहेगी।
एवं वुत्ते आयस्मा उदायी आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच-
ऐसा कहने पर आयुस्मान उदायी ने आयुस्मान आनन्द को यह कहा-
‘‘सञ्ञीं एव नु खो आवुसो आनन्द, तदायतनं नो पटिसंवेदेति उदाहु असञ्ञी’’?
‘‘आयुस्मान आनन्द! क्या वह व्यक्ति संज्ञा-युक्त रहता हुआ उस आयतन की संवेदना नहीं करेगा, अथवा संज्ञा-विहिन होने के कारण?’’
‘‘सञ्ञीमेव खो, आवुसो, तदायतनं नो पटिसंवेदेति, नो असञ्ञी’’ति।
‘‘आवुस ! वह व्यक्ति संज्ञा-युक्त रहता हुआ ही उस आयतन की संवेदना नहीं करेगा, संज्ञा-विहिन होने के कारण नहीं।’’
‘‘किं सञ्ञी पन आवुसो तदायतनं नो पटिसंवेदेति’’ति?
‘‘आवुस ! वह व्यक्ति किस संज्ञा से युक्त होकर उस आयतन की संवेदना नहीं करेगा?’’
‘‘इध आवुसो, भिक्खु, सब्बसो रूप सञ्ञानं समतिक्कमा पटिघ सञ्ञानं अत्थंगमा नानत्तं सञ्ञानं अमनसिकारा विहरति।
आवुस, एक भिक्खु सभी रूप संज्ञाओं का प्रहाण कर, पटिघ संज्ञाओं के अस्त हो जाने पर, नानात्व संज्ञाओं की ओर से उपेक्षावान हो विहार करता है।
एवं सञ्ञीपि खो आवुसो, तदायतनं नो पटिसंवेदेति।’’
आवुस इस संज्ञा से युक्त होने पर भी वह उस आयतन की संवेदना नहीं करता(आनन्द सुत्तः अंगुत्तर निकायः नवक निपातो पृ. 101/438)।
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