Wednesday, January 6, 2021

यवन, शक और कुषाण शासक

 बैक्ट्रियिन कालीन बौध्द स्मारक एवं मूर्तियां-

जिस समय मगध पर शृंगवंश का शासन था, बैक्ट्रिया के शासक डिमेट्रियस ने पश्चिमी भारत पर आक्रमण करके काफी बड़े क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। उसके पुत्र मिनेण्डर अथवा मेनेन्द्र ने अपने राज्य को गांधार से लेकर मथुरा तक विस्तृत कर लिया। उसकी कुछ मुद्राओं पर ऊंट का चित्र बना हुआ है, जो राजस्थान पर उसके आधिपत्य को प्रकट करता है। पतंजलि की व्याकरण में अनायास ही आये एक उद्धरण से ज्ञात होता है कि माध्यमिका (चित्तौड़ से 8 मील दूर स्थित नगरी) को एक यवन ने अभी-अभी ही अपने अधिकार में लिया है। यह शासक डिमैट्रियस अथवा मिनैण्डर अनुमानित किया जाता है। डिमैट्रियस तथा मिनैण्डर ने राजपूताना, काठ़ियाडवाड़ तथा सिन्ध आदि क्षेत्र अपने अधीन किये। नागसेन नामक बौद्ध भिक्षु ने मिनेण्डर को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया। बौद्ध ग्रन्थों में उसे मिलिन्द कहा गया है। उसका शासन काल 160 ई.पू. से 140 ई.पू. तक माना जाता है। मिनेण्डर बौद्धों का आश्रयदाता बन गया। उसने अनेक बौद्ध मठों, स्तूपों तथा विहारों का निर्माण करवाया। वृद्धावस्था में उसने एक बौद्ध भिक्षु की तरह जीवन व्यतीत किया और अर्हत् का पद प्राप्त किया। मिनेण्डर के निर्बल उत्तराधिकारियों ने 50 ई.पू. तक भारतीय क्षेत्रों पर शासन किया। अन्त में शकों ने उनके राज्य पर अधिकार स्थापित कर लिया। 

शक तथा कुषाण कालीन स्मारक: 

शक विदेशी थे तथा पहली शताब्दी ईस्वी में आक्रांता के रूप में भारत में आये थे किंतु शताब्दियों तक भारतीय सभ्यता के निरंतर सम्पर्क से वे भारतीय संस्कृति में ही रच-बस गये। जब चौथी शताब्दी ईस्वी में गुप्त साम्राज्य का उदय हुआ तो शक क्षत्रप गुप्त साम्राज्य में विलीन हो गये। मथुरा और तक्षशिला के शक क्षत्रपों का झुकाव जैन व बौद्ध धर्मों की तरफ था जबकि पश्चिमी भारत के शक; बौद्ध और ब्राह्मण धमों के अनुरागी थे। अर्थात् राजस्थान के कुछ शक शासक अवश्य ही बौद्ध धर्म के अनुयायी रहे होंगे। उनके काल में भरतपुर तथा उससे संलग्र क्षेत्र बौद्ध धर्म के प्रभाव में था। शकों की तरह कुषाण भी विदेशी थे तथा वे भी पहली शताब्दी ईस्वी में आक्रांता के रूप में भारत आये थे। 78 ईस्वी में कनिष्क भारत का सम्राट हुआ। उसने 101 ईस्वी अथवा 123 ईस्वी तक भारत पर शासन किया। जब वह भारत आया, तब वह बौद्ध नहीं था किंतु जब उसने मगध को जीत लिया तो बौद्ध धर्म को धारण कर लिया। उसके द्वारा जारी की गई तीन तरह की मुद्राएं मिली हैं- प्रथम कोटि की मुद्राओं पर यूनानी देवता, सूर्य, तथा चन्द्रमा के चित्र मिलते हैं। उसकी दूसरी कोटि की मुद्राओं पर ईरानी देवता अग्रि के चित्र मिलते हैं तथा तीसरी कोटि की मुद्राओं पर बुद्ध के चित्र मिलते हैं। इन मुद्राओं से अनुमान होता है कि कनिष्क आरम्भ में यूनानी धर्म को मानता था, उसके बाद उसने ईरानी धर्म स्वीकार किया और अन्त में वह बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया। पाटलिपुत्र (अधुनिक पटना) में कनिष्क की भेंट बौद्ध आचार्य अश्वघोष से हुई। वह अश्वघोष की विद्वता तथा व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ कि उन्हें अपने साथ अपनी राजधानी पुष्पपुर अर्थात् पेशावर (अधुनिक पाकिस्तान) ले गया और उनसे बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण की। जिस प्रकार अशोक ने तीसरी बौद्ध संगीति पाटलिपुत्र में बुलाई थी उसी प्रकार कनिष्क ने चतुर्थ बौद्ध संगीति काश्मीर के कुण्डलवन में बुलाई। इस संगीति को बुलाने का ध्येय बौद्ध धर्म में उत्पन्न हुए मतभेदों को दूर करना और बौद्ध ग्रन्थों का सकंलन कर उन पर प्रामाणिक टीका एवं भाष्य लिखवाना था। इस संगीति में लगभग 500 भिक्षु तथा बौद्ध आचार्य सम्मिलित हुए। यह सभा बौद्ध आचार्य वसुमित्र के सभापतित्त्व में हुई। आचार्य अश्वघोष ने उपसभापती का आसन ग्रहण किया था(राजस्थान में बौद्ध स्मारक तथा मूर्तियाँ : डॉ. मोहनलाल गुप्ता) ।

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अफगानिस्तान के राबाटक नामक जगह से 1993 में बॅक्ट्रियन भाषा और यूनानी लिपि में लिखा कनिष्क का 23 पंक्तियों का शिलालेख मिला है।

शिलालेख में कनिष्क के पड़ दादा, दादा और पिता का नाम लिखा है। खुद कनिष्क का भी नाम लिखा है।

इसमें भारत के जिन छः प्रमुख नगरों का नाम लिखा है, उनमें एक साकेत भी है।

कनिष्क के जमाने में साकेत बड़े रुतबे का शहर था। शिलालेख में साकेत का नाम " जागेदा " ( Zageda ) लिखा है।

बॅक्ट्रियन भाषा में S बदलकर Z हो जाता है।

कनिष्क के शिलालेख में जो Zageda है, वही टोलेमि के भूगोल में Sageda है और जो टोलेमि के भूगोल में सागेदा है, वहीं पालि साहित्य में साकेत है।

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