Thursday, March 11, 2021

 1. सिंहली में.

2.  पालि भासा और सिंहली लिपि में. 

  -बुद्ध परिनिर्वाण के तीन-चार शताब्दियों बाद बुद्ध वचनों में आये दिनों होती अदल-बदल धम्मधरों को अरुचिकर प्रतीत होने लगी. उनमें से कुछ लोगों ने बुद्धवचनों की प्राचीन भासा को ही अपनाया और आगे यथा संभव प्रयत्न किया की इसमें कुछ रद्दो-बदल न होने पाए. दूसरे प्रकार के शिष्यों ने उसे अधिक स्थायी संस्कृत में कर दिया और तीसरे प्रकार के लोगों ने  परवर्ती भाषा में उसे सुरक्षित करने का प्रयास किया. पहले प्रकार में सिंहल के स्थिर वादी धम्मधरों की गणना होती है.  उनके अनुसार उनके धम्म ग्रन्थ मूल मागधी भाषा में है. इस प्रकार स्थिरवादी ति-पिटक जिस भाषा में उपलब्ध है, उसी को पालि के नाम से अभिहित किया जाता है(विषय प्रवेश : पालि साहित्य का इतिहास: राहुल सांस्कृत्यायन). 

3.  पालि भासा और बर्मी लिपि में.

4. पालि भासा और बर्मी लिपि में.

5.  मिलिन्द पंह ई. पू. 150 के आस-पास 

6. ललितविस्तर(जिसके लेखक का पता नहीं है). तत्पश्चात ललितविस्तर अनुकरण करते हुए अश्वघोष(100 ईस्वी) रचित 'बुद्धचरित'; प्रथम सदी के आस-पास.

7. अशोक(ई. पू. 247- 232) शिलालेख. तीसरी संगति के समय मोग्गलिपुत्त रचित कथावत्थु. 

सन्दर्भ- कथावत्थु एक मात्र ग्रन्थ है, जिसके लेखक और तिथि का हमें पता है. इसे मोग्गालिपुत्त तिस ने सम्राट अशोक के दरबार में लगभग 250 ई. पू. में संकलित किया था(बौद्ध धर्म का इतिहास और साहित्य, पृ. 50 ; टी. डब्ल्यु. रीज डेविड).

8. ललित विस्तर, बुद्ध चरित; प्रथम सदी के आस-पास.

9.  दोनों देशों में ति-पिटक लगभग एक जैसा है. सनद रहे, सिंहल द्वीप से ही ति-पिटक साहित्य म्यामार गया था.

10. भारत का अधिकांश ति-पिटक और अन्य साहित्य सिंहलद्वीप से ही आया है जिसे बुद्धघोष ने 500 ईस्वी के आस-पास  नागरी लिपि में लिपिबद्ध किया था. 

- वैसे चाइना, तिब्बत आदि देशों में यहाँ से गया हुआ पालि-संस्कृत ति-पिटक व अन्य साहित्य वहां की लिपि में लिपिबद्ध होकर प्रचुर मात्रा में वापिस भारत आया है.



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