तब गोंदिया से जबलपुर छोटी नेरो गेज ट्रेन चलती थी। रात को ग्यारह बजे वह बालाघाट आती और सुबह सात बजे जबलपुर पहुंचा देती।
मैं बालाघाट से चढ़ा। ऊपर सोने की जगह थी सो कब्जा करके सो गया। दो प्रौढ़ सज्जन भी बालाघाट से ही बाद में चढ़े। उन्होंने नीचे कब्जा जमाया। ट्रेन शुरू भी नहीं हुई थी कि उनके बीच की बातचीत शुरू हो गई। एक दूसरे से वे परिचित हुए तो उनका नाम भी मुझे लेटे लेटे ही पता चल गया। एक का नाम शुक्ला था और दूसरे का मिश्रा। एक कॉलेज में हिंदी का प्रोफेसर था और दूसरा राज्य प्रशासन में कोई अधिकारी। इधर उधर की बातचीत के बाद दोनों की हिंदी साहित्य पर चर्चा शुरू हुई। चूंकि यूपीएससी के लिए मेरा उन्हीं दिनों हिंदी साहित्य एक विषय था इसलिए भी मैं कान लगाकर सुनने लगा। प्रोफेसर कबीर का पक्ष रखने लगा और तुलसी को खारिज करने लगा। अधिकारी तुलसी का पक्ष रखने लगा और कबीर को खारिज करने लगा। दोनों की चर्चा बढ़ती रही। थोड़ा तीखापन भी आया। अंततः अधिकारी बोला कि आपकी सारी बात मुझे मान्य है लेकिन पैर की जूती पैर में ही रहे तो अच्छा है। उसे सर पर रखने की जरूरत नहीं है। प्रोफेसर भी मान गए। इस तरह दोस्ताना माहौल में बहस की समाप्ति हुए। पहले शंकराचार्य और मंडन मिश्र की बहस में बुद्धिज़्म हार गया था और आज शुक्ला मिश्रा की बहस में कबीर हार गए। वे दोनों सो गए मैं रात भर करवट बदलता रहा।
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