Monday, August 19, 2019

पवारणा सुत्त (SN 8.7)

पवारणा सुत्त
एक समय भगवान पांच सौ केवल अर्हत भिक्खुओं के एक बड़े संघ के साथ सावत्थी में मिगारमाता के पूर्वाराम प्रासाद में विहार कर रहे थे। उस समय पञ्च-दशी के उपोसथ पर पवारणा के लिए सम्मिलित हुए भिक्खु-संघ के बीच खुले मैदान में भगवान बैठे थे।
तब भगवान ने भिक्खु-संघ को शांत देख भिक्खुओं को आमंत्रित किया-  "भिक्खुओं ! मैं पवारण करता हूँ;
तुमने शरीर या वचन के कोई दोष तो मुझमें नहीं देखे हैं ?"
भगवान के ऐसा कहने पर आयु. सारिपुत्त आसन से ऊठ उपरनी को एक कंधे पर संभाल भगवान की ओर हाथ जोड़ कर बोले-
"भंते ! हम लोगों ने शरीर या वचन से कुछ बुराई कर भगवान् पर दोष नहीं चढ़ाया है। भंते, अनुत्पन्न मार्ग के उत्पन्न करने वाले हैं। न कहे गए मार्ग के बताने वाले हैं, मार्ग को पहचानने वाले है, मार्ग पर चले हुए हैं।"

 "भंते! इस समय आपके सावक आपका अनुगमन करने वाले हैं। भंते! मैं भगवान को पवारण करता हूँ;   भगवान ने हम में कोई शारीरिक या वाचसिक दोष तो नहीं देखा है ?"
"सारिपुत्त ! मैंने शरीर या वचन के दोष करते तुम्हें नहीं पाया है, सारिपुत्त ! तुम पंडित हो, पुण्यवान हो, महा प्रज्ञावान हो, तुम्हारी प्रज्ञा, प्रसन्न, सर्वगामी, तीक्ष्ण और अपराजेय है . सारिपुत्त ! जैसे चक्रवर्ती राजा का जेष्ठ पुत्र  पिता के प्रवर्तित चक्र का सम्यक प्रवर्तन करता है, वैसे ही तुम मेरे प्रवर्तित अनुत्तर धर्म चक्र का सम्यक प्रवर्तन करते हो।"
"भंते! यदि भगवान हम में कोई शारीरिक या वाचसिक दोष नहीं पाते हैं तो भगवान इन पांच सौ भिक्खुओं में भी कोई दोष नहीं पाएंगे। "
"सारिपुत्त ! हम इन पांच सौ भिक्खुओं में भी कोई दोष नहीं पाते हैं(पवारण सुत्त : संयुक्त निकाय  8. 7 )।"    

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