पालि को वैदिक भाषा की संतान कहना भ्रामक
भिक्षु जगदीश काश्यप ने अपने कालजयी ग्रन्थ पालि महाव्याकरण में वैदिक, पालि और संस्कृत की चर्चा करते हुए लिखा है कि देश तथा अवस्था के प्रभाव से वैदिक भाषा की संतान पालि तथा प्राकृत भाषाएँ हुई(दूसरा खंड: पालि और वैदिक भाषा, पृ. तेईस)।
भंतेजी के कथन की विवेचना करने पर इसमें कुछ अस्वाभाविक दिखाई नहीं देता। एक ब्राह्मण होने के नाते ऐसा कहना उनका धर्म ही था। अब हम इसके विरोध में कई तथ्य रखते हैं-
1 . आदिमानव काल में संकेत ही भाषा का कार्य करते थे।
2. भिन्न-भिन्न जलवायु/क्षेत्र के लोगों के उनकी भिन्न-भिन्न आवश्यकता के अनुरूप परस्पर व्यवहार के लिए भिन्न संकेतों का होना स्वाभाविक है।
2 . परस्पर व्यवहार के इन संकेतों से धीरे-धीरे बोली/ भाषा का विकास हुआ। विभिन्न क्षेत्रीय बोलियां इसका परिणाम हैं।
3 . भारत की बात करें तो तिब्बती, कश्मीरी आदि उत्तरीय; बंगला, असमिया आदि पूर्वीय; मागधी, मराठी आदि मध्य भारतीय; वैदिक आर्यवर्तीय, पंजाबी, गुजराती आदि पश्चिम भारतीय और मलयालम, कन्नड़ आदि दक्षिणी भारतीय बोली/भाषाएँ हैं।
4 . 600 ईसा पूर्व बुद्ध और महावीर ने अपने उपदेश 'मागधी भाषा' में देकर इसे क्षेत्रीय बोली/भाषा से उठा कर मगध की राज भाषा बनाने का मार्ग प्रशस्त किया।
5. ईसा पूर्व 330 में अशोक ने बुद्ध के उपदेशों को, जो मागधी(पालि) भाषा में थे, अपने शिलालेखों में धम्मलिपि में लिखवाकर और उन्हें अपने वृहत साम्राज्य के विभिन्न स्थानों में स्थापित करा कर भारत की संस्कृति और सभ्यता को विश्व के कोने-कोने में पहुंचा दिया।
6. लगभग इसी समय पाणिनि(250 ई. पू. ) ने आर्यवर्त की हिंदी/ वैदिक बोली/भाषा को, जो ब्राह्मण और 'कुलीन पुरुषों ' द्वारा ही विस्मृत हो रही थी, को सूत्राबद्ध किया। पाणिनि को 300 ई. पू. के पहले रखना अत्यंत कठिन है(डॉ आर्थर ए. मेकडानल: संस्कृत व्याकरण प्रवेशिका(1973): संस्कृत व्याकरण का संक्षिप्त इतिहास पृ. 9)।
7. ब्राह्मणों ने वेदों को, जो वैदिक बोली/भाषा में हैं, तथा जो ब्राह्मण को 'देव', 'देवता' और 'पूज्य' बतलाते हैं तथा इतर ब्राह्मणों को दैत्य, दानव, राक्षस आदि घृणा के पात्र बतलाते हैं, भेद खुलने के भय से गैर-ब्राह्मणों से दूर रखा.
8. यह कि बिंदु क्र. 3 के अंतर्गत भारत की क्षेत्रीय बोली/भाषाओँ को वैदिक संस्कृत से जोड़ना भ्रामक है। ये सारी प्राकृत क्षेत्रीय बोली/भाषाएँ, जिसमें वैदिक भाषा भी सम्मिलित हैं, विभिन्न क्षेत्रीय जलवायु और आवश्यकतों के अनुरूप समृद्ध हुई हैं। अंतर केवल इतना है कि जिस प्रकार वैदिक/संस्कृत को आर्यों ने तरजीह दी उसी प्रकार मागधी भाषा को बुद्ध और महावीर ने तरजीह दी।
9. दरअसल, भारत का इतिहास 'आर्य' और 'गैर-आर्य' संस्कृतियों अर्थात ब्राह्मण और समण(श्रमण) संघर्ष का इतिहास है। 'समण-संस्कृति' के ध्वज-वाहक स्वयं को यहाँ की आदि समृद्ध सभ्यता 'मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा संस्कृति ' से जोड़ते हैं। बाद के दिनों में आर्य और आर्येतर सांस्कृतिक आन्दोलन की चरम परिणति हम बौद्ध धर्म के अभ्युदय में देखते हैं (डॉ गोविन्द चन्द्र पांडे: बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ.. 1)।
10. ब्राह्मण संस्कृति और इसके झंडाबरदारों का यह कथन कि 'वैदिक संस्कृत' भारतीय भाषाओँ की जननी है, भ्रामक और तथ्यों को झूठलाने वाला कुप्रचार है.
11. दक्षिण भारत की मलयालम, कन्नड़ आदि 'द्रविड़-भाषा परिवार' की भाषाओँ को तो स्वयं ब्राह्मण भाषाविद 'भारोपीय भाषा परिवार' के अंतर्गत नहीं मानते। यद्यपि 'सिन्धु घाटी' की लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है किन्तु अधिक संभावना यही है कि वे 'द्रविड़ भाषाएँ' ही बोला करते थे(वी, डी. महाजन: प्राचीन भारत का इतिहास, पृ. 43)।
12. संस्कृत की अंधभक्ति और पालि के दुराग्रह ने अशोक के शिलालेखों की लिपि को 'ब्राह्मी' प्रचार कर दिया। जबकि उन शिलालेखों में स्पष्ट लिखवाया गया है कि यह 'धम्मलिपि' में हैं.
भिक्षु जगदीश काश्यप ने अपने कालजयी ग्रन्थ पालि महाव्याकरण में वैदिक, पालि और संस्कृत की चर्चा करते हुए लिखा है कि देश तथा अवस्था के प्रभाव से वैदिक भाषा की संतान पालि तथा प्राकृत भाषाएँ हुई(दूसरा खंड: पालि और वैदिक भाषा, पृ. तेईस)।
भंतेजी के कथन की विवेचना करने पर इसमें कुछ अस्वाभाविक दिखाई नहीं देता। एक ब्राह्मण होने के नाते ऐसा कहना उनका धर्म ही था। अब हम इसके विरोध में कई तथ्य रखते हैं-
1 . आदिमानव काल में संकेत ही भाषा का कार्य करते थे।
2. भिन्न-भिन्न जलवायु/क्षेत्र के लोगों के उनकी भिन्न-भिन्न आवश्यकता के अनुरूप परस्पर व्यवहार के लिए भिन्न संकेतों का होना स्वाभाविक है।
2 . परस्पर व्यवहार के इन संकेतों से धीरे-धीरे बोली/ भाषा का विकास हुआ। विभिन्न क्षेत्रीय बोलियां इसका परिणाम हैं।
3 . भारत की बात करें तो तिब्बती, कश्मीरी आदि उत्तरीय; बंगला, असमिया आदि पूर्वीय; मागधी, मराठी आदि मध्य भारतीय; वैदिक आर्यवर्तीय, पंजाबी, गुजराती आदि पश्चिम भारतीय और मलयालम, कन्नड़ आदि दक्षिणी भारतीय बोली/भाषाएँ हैं।
4 . 600 ईसा पूर्व बुद्ध और महावीर ने अपने उपदेश 'मागधी भाषा' में देकर इसे क्षेत्रीय बोली/भाषा से उठा कर मगध की राज भाषा बनाने का मार्ग प्रशस्त किया।
5. ईसा पूर्व 330 में अशोक ने बुद्ध के उपदेशों को, जो मागधी(पालि) भाषा में थे, अपने शिलालेखों में धम्मलिपि में लिखवाकर और उन्हें अपने वृहत साम्राज्य के विभिन्न स्थानों में स्थापित करा कर भारत की संस्कृति और सभ्यता को विश्व के कोने-कोने में पहुंचा दिया।
6. लगभग इसी समय पाणिनि(250 ई. पू. ) ने आर्यवर्त की हिंदी/ वैदिक बोली/भाषा को, जो ब्राह्मण और 'कुलीन पुरुषों ' द्वारा ही विस्मृत हो रही थी, को सूत्राबद्ध किया। पाणिनि को 300 ई. पू. के पहले रखना अत्यंत कठिन है(डॉ आर्थर ए. मेकडानल: संस्कृत व्याकरण प्रवेशिका(1973): संस्कृत व्याकरण का संक्षिप्त इतिहास पृ. 9)।
7. ब्राह्मणों ने वेदों को, जो वैदिक बोली/भाषा में हैं, तथा जो ब्राह्मण को 'देव', 'देवता' और 'पूज्य' बतलाते हैं तथा इतर ब्राह्मणों को दैत्य, दानव, राक्षस आदि घृणा के पात्र बतलाते हैं, भेद खुलने के भय से गैर-ब्राह्मणों से दूर रखा.
8. यह कि बिंदु क्र. 3 के अंतर्गत भारत की क्षेत्रीय बोली/भाषाओँ को वैदिक संस्कृत से जोड़ना भ्रामक है। ये सारी प्राकृत क्षेत्रीय बोली/भाषाएँ, जिसमें वैदिक भाषा भी सम्मिलित हैं, विभिन्न क्षेत्रीय जलवायु और आवश्यकतों के अनुरूप समृद्ध हुई हैं। अंतर केवल इतना है कि जिस प्रकार वैदिक/संस्कृत को आर्यों ने तरजीह दी उसी प्रकार मागधी भाषा को बुद्ध और महावीर ने तरजीह दी।
9. दरअसल, भारत का इतिहास 'आर्य' और 'गैर-आर्य' संस्कृतियों अर्थात ब्राह्मण और समण(श्रमण) संघर्ष का इतिहास है। 'समण-संस्कृति' के ध्वज-वाहक स्वयं को यहाँ की आदि समृद्ध सभ्यता 'मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा संस्कृति ' से जोड़ते हैं। बाद के दिनों में आर्य और आर्येतर सांस्कृतिक आन्दोलन की चरम परिणति हम बौद्ध धर्म के अभ्युदय में देखते हैं (डॉ गोविन्द चन्द्र पांडे: बौद्ध धर्म के विकास का इतिहास, पृ.. 1)।
10. ब्राह्मण संस्कृति और इसके झंडाबरदारों का यह कथन कि 'वैदिक संस्कृत' भारतीय भाषाओँ की जननी है, भ्रामक और तथ्यों को झूठलाने वाला कुप्रचार है.
11. दक्षिण भारत की मलयालम, कन्नड़ आदि 'द्रविड़-भाषा परिवार' की भाषाओँ को तो स्वयं ब्राह्मण भाषाविद 'भारोपीय भाषा परिवार' के अंतर्गत नहीं मानते। यद्यपि 'सिन्धु घाटी' की लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है किन्तु अधिक संभावना यही है कि वे 'द्रविड़ भाषाएँ' ही बोला करते थे(वी, डी. महाजन: प्राचीन भारत का इतिहास, पृ. 43)।
12. संस्कृत की अंधभक्ति और पालि के दुराग्रह ने अशोक के शिलालेखों की लिपि को 'ब्राह्मी' प्रचार कर दिया। जबकि उन शिलालेखों में स्पष्ट लिखवाया गया है कि यह 'धम्मलिपि' में हैं.
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