Tuesday, May 12, 2020

दलित साहित्य की 10 सर्वोत्तम रचानाएं

सन 2013 में बीबीसी हिंदी के लिए दलित साहित्य की 10 श्रेष्ठ रचनाओं का चयन ओमप्रकाश वाल्मीकि ने किया था जो हिंदी दलित साहित्य के सबसे बड़े लेखक हैं।
16 सितंबर 2013 को प्रस्तुत इस रिपोर्ट को बीबीसी के लिए अमरेश द्विवेदी ने तैयार किया था।
2013 की इस अवधि के बाद हिंदी दलित साहित्य ने काफ़ी फैलाव एवं महत्व प्राप्त किया है। अनेक विश्वविद्यालयों में दलित रचनाओं एवं किताबों पर एमफिल, पीएचडी सहित अनेक प्रकार के शोध अध्ययन हो रहे हैं तथा ये चीज़ें स्कूल, कॉलेज के पाठ्यक्रमों में भी लग रही हैं।
क्या 2013 की इस अवधि के बाद हिंदी दलित साहित्य की रचनाओं का ऐसा कोई आकलन आया है?
मसलन, 2013 के बाद हिंदी दलित साहित्य की 10 सर्वश्रेष्ठ रचनाओं की।अगर तलाश की जाए तो उनमें किस किस को रखा जा सकता है?
बहरहाल, बीबीसी के लिए वाल्मीकि के उक्त आकलन से यहाँ नीचे परिचय कीजिये :
हिंदी दलित साहित्य में दलितों के जीवन को केंद्र में रखकर अनेक किताबें (एवं कविता-कहानियाँ) लिखी गई हैं. मैंने उनमें से कुछ वैसी किताबों (एवं कविता-कहानियों) को यहां शामिल किया है जिनमें दलित जीवन की सच्चाई बेहद यथार्थवादी नज़रिए से अभिव्यक्त हुई है.
1. जूठन (आत्मकथा)- ओम प्रकाश वाल्मीकि
दलित साहित्य में ‘जूठन’ ने अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है. इस पुस्तक ने दलित, गैर-दलित पाठकों, आलोचकों के बीच जो लोकप्रियता अर्जित की है, वह उल्लेखनीय है.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी दलितों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए जो एक लंबा संघर्ष करना पड़ा, 'जूठन' इसे गंभीरता से उठाती है.
प्रस्तुति और भाषा के स्तर पर यह रचना पाठकों के अन्तर्मन को झकझोर देती है.
भारतीय जीवन में रची-बसी जाति–व्यवस्था के सवाल को इस रचना में गहरे सरोकारों के साथ उठाया गया है.
दलितों की वेदना और उनका संघर्ष पाठक की संवेदना से जुड़कर मानवीय संवेदना को जगाने की कोशिश करते हैं. इसीलिए यह पुस्तक पाठकों के बीच इतनी लोकप्रिय हुई है.
2. मुर्दहिया (आत्मकथा) – तुलसी राम
‘जूठन’ भारत के पश्चिमी उत्तर-प्रदेश की ब्राह्मणवादी, सामंती मानसिकता के उत्पीड़न की अभिव्यक्ति है तो ‘मुर्दहिया’ पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचल में शिक्षा के लिए जूझते एक दलित की मार्मिक अभिव्यक्ति है.
जहां सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक विसंगतियां क़दम–क़दम पर दलित का रास्ता रोक कर खड़ी हो जाती है और उसके भीतर हीनताबोध पैदा करने के तमाम षड्यंत्र रचती है.
लेकिन एक दलित संघर्ष करते हुए इन तमाम विसंगतियों से अपने आत्मविश्वास के बल पर बाहर आता है और जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय में विदेशी भाषा का विद्वान बनता है.
यही इस रचना को एक गंभीर सरोकारों की रचना बनाता है जिसे पाठक और आलोचक स्वीकार करते हैं.
3. पच्चीस चौका डेढ़ सौ (कहानी) – ओम प्रकाश वाल्मीकि
दलित कहानियों में सामाजिक परिवेशगत पीड़ाएं, शोषण के विविध आयाम खुल कर और तर्क संगत रूप से अभिव्यक्त हुए हैं.
ग्रामीण जीवन में अशिक्षित दलित का जो शोषण होता रहा है, वह किसी भी देश और समाज के लिए गहरी शर्मिंदगी का सबब होना चाहिए था.
‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’ कहानी में इसी तरह के शोषण को जब पाठक पढ़ता है, तो वह समाज में व्याप्त शोषण की संस्कृति के प्रति गहरी निराशा से भर उठता है.
ब्याज पर दिए जाने वाले हिसाब में किस तरह एक सम्पन्न व्यक्ति, एक गरीब दलित को ठगता है और एक झूठ को महिमा-मण्डित करता है, वह पाठक की संवेदना को झकजोर कर रख देता है.
4. अपना गाँव (कहानी ) – मोहन दास नैमिशराय
‘अपना गाँव’ मोहनदास नैमिशराय की एक महत्त्वपूर्ण कहानी है जो दलित मुक्ति-संघर्ष आंदोलन की आंतरिक वेदना से पाठकों को रूबरू कराती है.
दलित साहित्य की यह विशिष्ट कहानी है. दलितों में स्वाभिमान और आत्मविश्वास जगाने की भाव भूमि तैयार करती है.
मोहनदास नैमिशराय ने भारतीय संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव अँबेडकर की जीवनी भी लिखी है.
इसीलिए यह विशिष्ट कहानी बन कर पाठकों की संवेदना से दलित समस्या को जोड़ती है.
दलितों के भीतर हज़ारों साल के उत्पीड़न ने जो आक्रोश जगाया है वह इस कहानी में स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त होता है.
भाषा की सहजता इस कहानी को गंभीर सरोकारों से जोड़ने में सफल होती है.
5. ठाकुर का कुआं (कविता ) – ओम प्रकाश वाल्मीकि
भारतीय समाज व्यवस्था ने दलितों के मौलिक अधिकार ही नहीं छीने बल्कि उन्हें निकृष्ट जीवन जीने के लिए भी बाध्य किया और उन पर कड़े कानून भी लागू किए. उनके संपत्ति अर्जित करने कर प्रतिबंध लगाए.
आज भी दलितों के पास अपनी निजी जमीन व अन्य संपत्ति नहीं है जिसे अनदेखा करते हुए अनेक राज्य सरकारें दलितों को स्थायी निवास प्रमाण-पत्र जारी नहीं करती हैं यानी कहने को वे भारत के नागरिक हैं लेकिन राज्य सरकारें ऐसा नहीं मानती हैं.
सैकड़ों साल एक ही स्थान पर रहने के बावजूद वे उस स्थान के निवासी नहीं माने जाते हैं क्योंकि उनके पास संपत्ति के कागजात नहीं हैं.
ठाकुर का कुआं (कविता ) इसी सामाजिक सच्चाई को अभिव्यक्त करती है और दलितों की अंत:पीड़ा को सहज और सरल शब्दों में पाठकों के सामने रखती है.
चूल्हा मिट्टी का /मिट्टी तालाब की /तालाब ठाकुर का ...
6. सुनो ब्राह्मण (कविता ) – मलखान सिंह
मलखान सिंह की ‘सुनो ब्राह्मण’ कविता ने दलित साहित्य में जो प्रतिष्ठा अर्जित की है वह अपने आप में एक उपलब्धि मानी जाएगी.
ये कविता वर्ण-व्यवस्था, ब्राह्मणवादी, सामंती–व्यवस्था पर तीखेपन के साथ हमला करती है.
साथ ही उन तमाम मिथकों, बिम्बों और प्रतीकों को भी चेतावनी देती है जो साहित्य में जड़ जमाए बैठे हैं.
सीधे–सीधे संवादात्मक शैली में यह कविता अपनी पूरी ऊर्जा के साथ दलित चेतना को पाठकों के सामने बेबाकी से प्रस्तुत करती है.
दलित साहित्य की यह एक श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण रचना है॰
सुनो ब्राह्मण ! हमारी दासता का सफर / तुम्हारे जन्म से शुरू होता है /और इसका अंत भी / तुम्हारे अंत के साथ होगा.
7. नो बार (कहानी) – जयप्रकाश कर्दम
'अछूत' मराठी के दलित साहित्यकार दया पवार की रचना है जिसमें महाराष्ट्र की महार जाति के जीवन संघर्ष का जीवंत चित्रण है.
अखबारों के वैवाहिक विज्ञापनों में अक्सर लिखा होता है– जाति-बंधन नहीं (नो बार).
लेकिन इसमें भी एक छिपा एजेंडा होता है. एक दलित के लिए यह शर्त लागू नहीं यानी दलित स्वीकार्य नहीं.
यह कहानी इसी समस्या को केंद्र में रख कर सामाजिक जीवन में रची बसी जाति वैमनस्य की भावना को अभिव्यक्त करती है.
इस कहानी के प्रस्तुतिकरण से जो प्रभावोत्पादकता पैदा होती है, वह पाठक को छू जाती है. वही इसे एक अच्छी कहानी के रूप में मान्यता दिलाती है.
8. मैं दूंगा माकूल जवाब (कविता) – असंगघोष
असंगघोष की यह कविता दलित साहित्य में अपनी एक खास जगह बना चुकी है.
यह कविता अपनी प्रस्तुति में जितनी सहज और सरल है, बोधगम्यता में उतनी ज्यादा गहन अनुभूतियों को भी अभिव्यक्त करती है.
दलित के भीतर उफनते आक्रोश की यह कविता मानवीय संवेदनाओं को बहुत दूर तक ले जाती है.
दलितों को शिक्षा से दूर रखने के जो षड्यंत्र व्यवस्था के नाम पर रचे गए, यह कविता उनके लिए एक माकूल जवाब है.
इसीलिए यह दलित कविता में अपना एक विशिष्ट स्थान बनाने में सफल हुई है.
समय के साथ /इसका/ मैं दूंगा माकूल जवाब/मेरे जगह/पढ़ेंगे मेरे बच्चे /जरूर !
9. दोहरा अभिशाप (आत्मकथा) – कौशल्या वैसन्त्री
कौशल्या वैसन्त्री की यह आत्मकथा हिन्दी दलित साहित्य की पहली महिला आत्मकथा मानी जाती है.
कौशल्या वैसन्त्री अपने जीवन की एक–एक पर्त को जिस तरह उघाड़ कर पाठकों के सामने रखती हैं वह एक साहस का काम है.
इस आत्मकथा की एक विशिष्टता है उसकी भाषा, जो जीवन की गंभीर और कटू अनुभूतियों को तटस्थता के साथ अभिव्यक्त करती है.
एक दलित स्त्री को दोहरे अभिशाप से गुज़रना पड़ता है- एक उसका स्त्री होना और दूसरा दलित होना.
कौशल्या वैसन्त्री इन दोनों अभिशापों को एक साथ जीती हैं जो उनके अनुभव जगत को एक गहनता प्रदान करते हैं.
10. शिकंजे का दर्द (आत्मकथा ) - सुशीला टाकभौरे
सुशीला टाकभौरे की इस आत्मकथा ने अपने पारिवारिक और सामाजिक संघर्ष को जिस तरह शब्दबद्ध किया है वह इसे दलित साहित्य में एक विशिष्ट स्थान दिलाता है.
एक स्त्री होने की पीड़ा और दलित जीवन की विसंगतियों को अभिव्यक्त करने में एक आत्मकथाकार को सफलता मिली है.
इसीलिए यह दलित साहित्य की एक श्रेष्ठ रचना है.
Musafir Baitha जी की वॉल से।

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