ति-पिटक सुत्तों में परस्पर विरोध और पुनरुक्ति दोष-
महापरिनिर्वाण सुत्त के अनुसार बुद्ध ने अपने बाद धर्म और विनय को ही शास्ता मानने की आज्ञा दी थी। अतयव यह स्वाभाविक ही था कि बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद भिक्खुसंघ धर्म और विनय का स्वरूप निश्चित करे। बुद्ध के समय भिक्खुगण अपने-अपने विहारों में निश्चित बुद्ध उपदेशों को मौखिक परम्परा से सुरक्षित रखते थे। फलस्वरूप पृथक-पृथक विहारों में पृथक-पृथक बुद्ध उपदेश सुरक्षित थे। बुद्ध के बाद भिक्षुसंघ का सबसे पहला कार्य यही था कि उन विभिन्न विहारों में बिखरे हुए उपदेशों को एकत्रित किया जाए। यही कार्य प्रथम संगीति में किया गया(डॉ. कोमलचन्द्र जैनः प्राक्कथनः पालि-साहित्य का इतिहास, पृ. 16)।
राजगृह की सप्तपर्णी गुफा में पांच सौ वरिष्ठ भिक्खुओं ने मिल कर अपने-अपने विहारों में मौखिक रूप से सुरक्षित बुद्ध उपदेशों को प्रस्तुत किया और समुचित परिक्षण के बाद उन्हें सामुहिक रूप से बुद्ध वचन की मान्यता दे दी गई। इस संगीति में बुद्ध के द्वारा एक से अधिक विहारों में दिए गए एक ही उपदेश को बिना किसी कांट-छांट के मान लिया गया। फलस्वरूप ऐसे प्रसंगों में एक ही उपदेश एक से अधिक बार संकलित हो गया और वहां केवल सम्बोधित भिक्खु तथा स्थान के नाम की भिन्नता मात्र रह गई। इस प्रकार यदि कोई उपदेश एक जगह संक्षेप में और दूसरी जगह विस्तार से दिया गया था, तो संगीति में उसके संक्षिप्त एवं विस्तृत दोनों रूप स्वीकार कर लिए गए। कोई उपदेश एक जगह बुद्ध द्वारा दिया गया था और दूसरी जगह किसी भिक्खु द्वारा, तो उस उपदेश को भी दोनों रूपों में संकलित कर लिया गया(वहीं)।
इन्हीं कारणों से कुछ सुत्तों में पुनरुक्ति दृष्टिगोचर होती है तो कुछ सुत्तों में परस्पर विरोध-सा झलकता है। अतयव प्रथम संगीति के समय किये गए संकलन की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए पुनरुक्तियों को या विरोधपूर्ण प्रतीत होने वाले प्रसंगों से यह निष्कर्ष निकालना अनुचित है कि प्रथम संगीति हुई ही नहीं अथवा यह कि प्रथम संगीति में धम्म और विनय का संगायन ही नहीं हुआ। अपितु इसके विपरित यह निष्कर्ष अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है कि प्रथम संगीति में धम्म एवं विनय के संकलन के समय प्रत्येक भिक्खु ने अपने विहार में सुरक्षित बुद्ध.उपदेश को उसी रूप में संगीति की मान्यता दिलवायी (वहीं )।
महापरिनिर्वाण सुत्त के अनुसार बुद्ध ने अपने बाद धर्म और विनय को ही शास्ता मानने की आज्ञा दी थी। अतयव यह स्वाभाविक ही था कि बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद भिक्खुसंघ धर्म और विनय का स्वरूप निश्चित करे। बुद्ध के समय भिक्खुगण अपने-अपने विहारों में निश्चित बुद्ध उपदेशों को मौखिक परम्परा से सुरक्षित रखते थे। फलस्वरूप पृथक-पृथक विहारों में पृथक-पृथक बुद्ध उपदेश सुरक्षित थे। बुद्ध के बाद भिक्षुसंघ का सबसे पहला कार्य यही था कि उन विभिन्न विहारों में बिखरे हुए उपदेशों को एकत्रित किया जाए। यही कार्य प्रथम संगीति में किया गया(डॉ. कोमलचन्द्र जैनः प्राक्कथनः पालि-साहित्य का इतिहास, पृ. 16)।
राजगृह की सप्तपर्णी गुफा में पांच सौ वरिष्ठ भिक्खुओं ने मिल कर अपने-अपने विहारों में मौखिक रूप से सुरक्षित बुद्ध उपदेशों को प्रस्तुत किया और समुचित परिक्षण के बाद उन्हें सामुहिक रूप से बुद्ध वचन की मान्यता दे दी गई। इस संगीति में बुद्ध के द्वारा एक से अधिक विहारों में दिए गए एक ही उपदेश को बिना किसी कांट-छांट के मान लिया गया। फलस्वरूप ऐसे प्रसंगों में एक ही उपदेश एक से अधिक बार संकलित हो गया और वहां केवल सम्बोधित भिक्खु तथा स्थान के नाम की भिन्नता मात्र रह गई। इस प्रकार यदि कोई उपदेश एक जगह संक्षेप में और दूसरी जगह विस्तार से दिया गया था, तो संगीति में उसके संक्षिप्त एवं विस्तृत दोनों रूप स्वीकार कर लिए गए। कोई उपदेश एक जगह बुद्ध द्वारा दिया गया था और दूसरी जगह किसी भिक्खु द्वारा, तो उस उपदेश को भी दोनों रूपों में संकलित कर लिया गया(वहीं)।
इन्हीं कारणों से कुछ सुत्तों में पुनरुक्ति दृष्टिगोचर होती है तो कुछ सुत्तों में परस्पर विरोध-सा झलकता है। अतयव प्रथम संगीति के समय किये गए संकलन की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए पुनरुक्तियों को या विरोधपूर्ण प्रतीत होने वाले प्रसंगों से यह निष्कर्ष निकालना अनुचित है कि प्रथम संगीति हुई ही नहीं अथवा यह कि प्रथम संगीति में धम्म और विनय का संगायन ही नहीं हुआ। अपितु इसके विपरित यह निष्कर्ष अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है कि प्रथम संगीति में धम्म एवं विनय के संकलन के समय प्रत्येक भिक्खु ने अपने विहार में सुरक्षित बुद्ध.उपदेश को उसी रूप में संगीति की मान्यता दिलवायी (वहीं )।
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