गाथा 38-
अन-वट्ठित(अस्थिर) चित्तस्स(चित्त का), सद्धम्मं(सद्धम्म को ) अविजानतो(न जानता) ।
परिप्लव(चंचल) पसादस्स(चित्त की ), पञ्ञा(प्रज्ञा ) न(नहीं) परिपूरति(परिपूर्ण होती है)। ।
अस्थिर चित्त की, जो सद्धम्म को नहीं जानता।
और जिसका चित्त चंचल है, उसकी प्रज्ञा पूर्ण नहीं हो सकती । ।
गाथा- 39
अन-वस्सुत(अन-आश्रव) चित्तस्स(चित्त का), अन्वाहत(अन-आहत) चेतसो(चित्त वाले व्यक्ति का )।
पुञ्ञ पाप हिनस्स(विहीन को), नत्थि जागरातो भयं। ।
आश्रव हिन चित्त का, जिसका मन मल रहित है। ।
जो पुन्य पाप विहीन है, उस जाग्रत पुरुष को भय नहीं है । ।
अन-वट्ठित(अस्थिर) चित्तस्स(चित्त का), सद्धम्मं(सद्धम्म को ) अविजानतो(न जानता) ।
परिप्लव(चंचल) पसादस्स(चित्त की ), पञ्ञा(प्रज्ञा ) न(नहीं) परिपूरति(परिपूर्ण होती है)। ।
अस्थिर चित्त की, जो सद्धम्म को नहीं जानता।
और जिसका चित्त चंचल है, उसकी प्रज्ञा पूर्ण नहीं हो सकती । ।
गाथा- 39
अन-वस्सुत(अन-आश्रव) चित्तस्स(चित्त का), अन्वाहत(अन-आहत) चेतसो(चित्त वाले व्यक्ति का )।
पुञ्ञ पाप हिनस्स(विहीन को), नत्थि जागरातो भयं। ।
आश्रव हिन चित्त का, जिसका मन मल रहित है। ।
जो पुन्य पाप विहीन है, उस जाग्रत पुरुष को भय नहीं है । ।
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