Friday, May 8, 2020

गीता

गीता-
1. गीता के ग्रंथकार का उद्देश्य कोई तत्व-ज्ञान बतलाना नहीं, अपितु अर्जुन, जो युद्ध नहीं चाहता था, को युद्ध के लिए प्रवृत करना था। तथापि बाद में उसमें ऐसी अनेक तत्व-दृष्टियों का मिलाया गया कि विद्वान कहलाने वालों को भी भ्रम हो जाता है(धर्मानन्द कोसम्बीः भारतीय संस्कृति और अहिंसा पृ. 109)।
2. अधिकतर पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि इसका तत्व-ज्ञान बौद्ध ग्रंथों के आधार पर लिखा गया है। यद्यपि युद्ध का बुद्ध के तत्व-ज्ञान से कोई संबंध नहीं है, फिर भी इसमें जबरदस्ती ठूंस दिया गया है। यह परस्पर विरोध तभी समझ आएगा जब यह जाना जाए कि ग्रंथ किसके लिए लिखा गया है(वही, पृ. 110)?
3. दरअसल गीता, बालादित्य के समय लिखी गई थी। गुप्तवंश का राजा पुरुगुप्त वसुबन्धु(350 ईसवी) का मित्र था। बालादित्य को अपने सम्बन्धियों और दूसरे राजाओं से लड़ने का मौका आया। ऐसे परिस्थिति में बालादित्य ने किसी ब्राहमण को कोई रास्ता निकालने को कहा। उस ब्राह्मण ने गीता की रचना कर उसे महाभारत में जोड़ दिया(वही, पृ. 111)।
4. वसुबन्धु विज्ञान-वाद का उत्पादक था। विज्ञान-वाद की आलोचना ब्रह्मसूत्र-भाष्य में की गई है। स्पष्ट है, वसुबन्धु, ब्रह्मसूत्राकार के बाद का है और यह भी कि गीता, ब्रह्मसूत्र के बाद की है(वही)।
5. परमार्थ(498-569 ईसवी) लिखित वसुबन्धु का चरित्र, ह्वेनसांग(भारत प्रवास 629-645) द्वारा वर्णित वसुबन्धु की कथा और तिब्बति परम्परा से ज्ञात होता है कि वसुबन्धु, बालादित्य का गुरू था(वही)।
6. प्रतीत होता है कि बालादित्य के समय बादनारायण(300 ईसवी) या उसके किसी शिष्य ने भगवतगीता लिखी(वही)।
7. गीता वासुदेव के मुख से कहलाने का कारण है कि वह गुप्त राजाओं का कुल-देव था। बालादित्य को बौद्ध  धर्म के निर्वाण की चाह थी, इसलिए तत्संबंधी तत्व-ज्ञान भी उसमें जोड़ दिया गया(वही)।
8. इसमें बुद्ध का निर्वाण संबंधी तत्व-ज्ञान तो लिया गया किन्तु बौद्धों के कुछ तत्वों का विपर्यास भी किया गया। इसमें 'कर्म-योग' प्रमुख है। बौद्धों के उलट इसमें कहा गया कि बाप-दादाओं को धंधा स्वधर्म समझकर करें और उसमें आसक्ति न रखें। 'लोक-संग्रह' भी इसी प्रकार का विपर्यास है।
9. प्रश्न यह है कि बौद्धों ने इसका प्रतिवाद क्यों नहीं किया, यद्यपि दिग्नाग(425 ईसवी) और शांतरक्षित(740-840 ईसवी) जैसे बड़े-बड़े बौद्ध पंडित थे? इसका उत्तर यह है कि तब यह ग्रंथ अप्रसिद्ध था। बाद में शंकाराचार्य ने ही टीका लिखकर इस ग्रंथ को महत्व दिया। यह भी हो सकता है कि बौद्ध पंडितों में इतना नैतिक बल रह नहीं गया था कि वे प्रतिवाद करें, क्योंकि वे भी राज्याश्रित ही थे। शायद ही कोई राजा बिना हिंसा के राज्य प्राप्त करता था(वही)।

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