Monday, May 18, 2020

संस्कृत को पालि-प्राकृत आदि भाषाओँ की जननी कहना भ्रामक-

संस्कृत को पालि प्राकृत आदि भाषाओँ की जननी कहना भ्रामक-
1. पालि आदि क्षेत्रीय भाषाओँ को प्राकृत कहा जाता है। इन प्राकृत भाषाओँ में आर्यावर्त की वैदिक(इन्डो-ईरानियन) भी आती है।
2. वेदों की भाषा यहाँ की बोली/भाषा नहीं है। पारसी जेंदावेस्त और वेदों की भाषा और कथ्य में जो समानता है, वह दुनिया के दूसरी किसी भी संस्कृति के धर्म-ग्रन्थ या लेखों की भाषा और विषयवस्तु में वेदों से समानता के प्रमाण नहीं मिलते(मुद्राराक्षस: धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ, पृ. 42 )।
3 . इस जम्बुद्वीप में; जैसे की हम वर्तमान में देखते हैं, पूर्व काल से ही विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न भाषाएँ/बोलिया बोली जाती रही हैं।
4 . पालि, मगध आदि के आस-पास बोली जाने वाली क्षेत्रीय भाषा है, जिसमें बुद्ध(600 ई. पू.) और महावीर ने अपने उपदेश देकर इसे व्यापक प्रचार दिया।
5 . अशोक(250 ई. पू.) ने अपने शिलालेखों में इसी मगधी(पालि) भाषा का प्रयोग कर इसे विश्व पटल पर ला दिया। सनद रहे, मौर्यकाल में मागधी(पालि) 'राजभाषा' थी जिसकी लिपि 'धम्मलिपि' थी, जिसके साक्षी अशोक शिलालेख हैं. अशोक, अपने साम्राज्य में चहुं ओर स्थापित शिलालेखों में इसी भाषा का प्रयोग करता है, स्पष्ट है शासक उसी भाषा का प्रयोग करेगा जिसे लोग जानते हैं, समझते हैं.
6 . आर्यावर्त की वैदिक(इंडो-इरानियन) बोली/भाषा को पाणिनि ने अभिसंस्कृत(सूत्र-आबद्ध) किया जिसे 'संस्कृत' कहा गया। यह वही काल है जब पुष्यमित्र शुंग द्वारा मौर्य सम्राट बृहद्रथ की हत्या के पश्चात ब्राह्मणवाद की विजय के दौर में बौद्ध धर्म को विकृत और बदनाम किया गया।
7. पाणिनि और पतंजलि(पुष्यमित्र शुंग के गुरु) के वंशजों ने इसे 'ब्राह्मी'/ब्राह्मीलिपि ' कह कर अपने ही इतिहास से छेड़कानी की !
8. यह कि कन्नड़, मलयालम आदि दक्षिण के 'द्रविड़ भाषा-परिवार' की बोली/भाषाएं न तो संस्कृत से पैदा हुई है और न 'भारोपीय भाषा परिवार' के अंतर्गत आती है.
9. संस्कृत को उत्तर भारतीय बोली/भाषाओं यथा गुजराती, पंजाबी, बंगाली आदि की जननी कहना चंद निहित जाति/वर्ण स्वार्थ भाषाविदों का 'भाषायी ब्राह्मणवाद' है।
10. यद्यपि पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण 'अष्टाधायी लिखा किन्तु पूरे ग्रंथ में भाषा के अर्थ में 'संस्कृत' शब्द का प्रयोग नहीं किया। भाषा के अर्थ में 'संस्कृत' शब्द का प्रयोग वाल्मीकीय रामायण में उपलब्ध होता है, जो बहुत बाद की रचना है. सातवी शताब्दी के दंडी ने अपने काव्यादर्श में इसे 'देवभाषा' कह कर पूज्यनीय बना दिया.
11. वैदिक बोली/भाषा(इंडो-इरानियन) भाषा के सूत्रों की रचना करते समय पाणिनि बौद्ध-विद्वेष से इतना अभिशप्त था कि उसने व्याकरण के सूत्रों का उपयोग बौद्धों को गाली देने के लिए किया.
12. यह कि पाणिनि की 'अष्टाधायी' ही नहीं, तमाम ब्राह्मणी संस्कृत ग्रन्थ, डॉ सुरेन्द्र कुमार अज्ञात के शब्दों में; एक विचारधारा विशेष की विकृत उपज है.

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