धम्मलिपि न कि ब्राह्मीलिपि
गिरनार, जौगढ़, मनसेहर आदि स्थानों से प्राप्त अशोक स्तम्भ 'अयं धम्मलिपि देवानं पिय्येन पिय दस्सिना राजा लेखापिता ...पंक्ति से शुरू होते हैं। इस पंक्ति का अर्थ है- "यह धम्मलिपि देवों के प्रियदर्शी राजा अशोक के द्वारा लिखवाया गया है।" अंग्रेज अनुवादक ने इसे 'धम्मलिपि' ही कहा। नक़ल करते, कराते यह 'धम्मलिपि' 'अशोकलिपि' हो गई। यहाँ तक तो ठीक है, किन्तु यह 'ब्राह्मीलिपि' कैसे हो गई, यह रहस्य है !
आप 'ब्राह्मीलिपि' के बारे में पढ़िए, गुगल कीजिए, कुछ भी हाथ नहीं लगता । हाँ, यह जरुर आभास हो जाता है कि कुछ न कुछ गड़बड़ है। कुछ चालाकी है. अशोक के धम्मलिपि पर ब्राह्मी लिपि इस सफाई से चिपका दी गई है कि आप मीडिया की तरह 'मोदी-मोदी' कहने लगते है !
ऐसा क्यों हो जाता है कि जो कुछ उत्तम है, श्रेष्ठ है, वह ब्राह्मण है, ब्रह्म हैं, ब्रह्मचरिया है, ब्रम्हरंध्र है, ब्रह्मास्त्र हैं, ब्रह्म-विहार है, ब्रह्म-विद्या है, ब्रह्म-मुहूर्त है, ब्रह्म-पूजा है, ब्रह्मदेव है, ब्रह्मलोक है ? आखिर, जो उत्तम है, श्रेष्ट है, वह ब्रह्म के बिना क्यों नहीं रह सकता। क्यों रविदास की चमड़ी के अन्दर जनेऊ घुस जाता है, क्यों कबीर को कुँवारी ब्राह्मणी के पेट से ही जनना पड़ता है। क्यों बुद्ध ब्राह्मण/क्षत्रिय के घर ही पैदा होना पड़ता है ? और क्यों अम्बेडकर को ब्राह्मणी से विवाह करना पड़ता है ?
न बुद्ध बच सकें और न कबीर, ब्राह्मण ने हर जगह ब्रह्म को घुसेड़ दिया। हम ब्रह्म के बिना सोच नहीं सकते। एक कदम चल नहीं सकते। हमारी नस-नस में ब्रह्म समाया है, हमारी सांसों में ब्रह्म रस, बस गया है। हम बिना ब्रह्म के साँस नहीं ले सकते। आप रोटी के बिना कुछ दिन जिन्दा रह जाएँगे किन्तु ब्रह्म के बिना एक पल भी नहीं जी सकते। हमारा रग-रग ब्रह्म-मय है, ब्रह्म ही हम है, हम ही ब्रह्म है, गोया सारा ब्रह्माण्ड ब्रह्म है ? क्या नहीं ?
ब्रह्म और ब्राह्मणवाद के विरोधियों के पास जाईए, चाहे गुरु रविदास हो या कबीरदास, उनका दर्शन ब्रह्म मय मिलेगा। मुझे कई कबीरगद्दी/संस्थान/ मठों पर जाने का मौका मिला, यह देख कर भारी कोफ़्त हुई कि इनके मठाधीश चेलों को तो 'ब्रह्म' का अर्थ 'भ्रम' बतलाते हैं किन्तु हकीकत में उनके मठ ब्रह्ममय हैं ! उनके पूजा-पाठ और चाल-चलन में ब्रह्म ही ब्रह्म है। ब्राह्मण लेखकों द्वारा हर उत्तम और श्रेष्ट को ब्रह्म कहने और प्रचारित करने का यह 'सु-परिणाम' है।
ब्राह्मण लिखता है और हम उसे धारण करते हैं ! मानो वह हमारे लिए ही लिखता हो ? हमारे कई लोग धम्म-लिपि की ब्राह्मी-लिपि लिखते हैं ! आप लाख कहते रहें कि यह धम्मलिपि है, वे नहीं मानेगे। कुछ तो कहने लगते हैं कि हम आपकी बात क्यों माने ? क्या हमने जो पढ़ा है, गलत है ? क्या पाठ्य-पुस्तकों में गलत लिखा है ? क्या यूनिवर्सिटी में गलत पढाया जाता है ? हमारा भाषा-शास्त्र कहता है कि यह ब्राह्मी-लिपि है। हमारे हिंदी के प्रोफ़ेसर कहते हैं कि यह ब्राह्मी लिपि है ! क्या वे गलत हैं ?
गिरनार, जौगढ़, मनसेहर आदि स्थानों से प्राप्त अशोक स्तम्भ 'अयं धम्मलिपि देवानं पिय्येन पिय दस्सिना राजा लेखापिता ...पंक्ति से शुरू होते हैं। इस पंक्ति का अर्थ है- "यह धम्मलिपि देवों के प्रियदर्शी राजा अशोक के द्वारा लिखवाया गया है।" अंग्रेज अनुवादक ने इसे 'धम्मलिपि' ही कहा। नक़ल करते, कराते यह 'धम्मलिपि' 'अशोकलिपि' हो गई। यहाँ तक तो ठीक है, किन्तु यह 'ब्राह्मीलिपि' कैसे हो गई, यह रहस्य है !
आप 'ब्राह्मीलिपि' के बारे में पढ़िए, गुगल कीजिए, कुछ भी हाथ नहीं लगता । हाँ, यह जरुर आभास हो जाता है कि कुछ न कुछ गड़बड़ है। कुछ चालाकी है. अशोक के धम्मलिपि पर ब्राह्मी लिपि इस सफाई से चिपका दी गई है कि आप मीडिया की तरह 'मोदी-मोदी' कहने लगते है !
ऐसा क्यों हो जाता है कि जो कुछ उत्तम है, श्रेष्ठ है, वह ब्राह्मण है, ब्रह्म हैं, ब्रह्मचरिया है, ब्रम्हरंध्र है, ब्रह्मास्त्र हैं, ब्रह्म-विहार है, ब्रह्म-विद्या है, ब्रह्म-मुहूर्त है, ब्रह्म-पूजा है, ब्रह्मदेव है, ब्रह्मलोक है ? आखिर, जो उत्तम है, श्रेष्ट है, वह ब्रह्म के बिना क्यों नहीं रह सकता। क्यों रविदास की चमड़ी के अन्दर जनेऊ घुस जाता है, क्यों कबीर को कुँवारी ब्राह्मणी के पेट से ही जनना पड़ता है। क्यों बुद्ध ब्राह्मण/क्षत्रिय के घर ही पैदा होना पड़ता है ? और क्यों अम्बेडकर को ब्राह्मणी से विवाह करना पड़ता है ?
न बुद्ध बच सकें और न कबीर, ब्राह्मण ने हर जगह ब्रह्म को घुसेड़ दिया। हम ब्रह्म के बिना सोच नहीं सकते। एक कदम चल नहीं सकते। हमारी नस-नस में ब्रह्म समाया है, हमारी सांसों में ब्रह्म रस, बस गया है। हम बिना ब्रह्म के साँस नहीं ले सकते। आप रोटी के बिना कुछ दिन जिन्दा रह जाएँगे किन्तु ब्रह्म के बिना एक पल भी नहीं जी सकते। हमारा रग-रग ब्रह्म-मय है, ब्रह्म ही हम है, हम ही ब्रह्म है, गोया सारा ब्रह्माण्ड ब्रह्म है ? क्या नहीं ?
ब्रह्म और ब्राह्मणवाद के विरोधियों के पास जाईए, चाहे गुरु रविदास हो या कबीरदास, उनका दर्शन ब्रह्म मय मिलेगा। मुझे कई कबीरगद्दी/संस्थान/ मठों पर जाने का मौका मिला, यह देख कर भारी कोफ़्त हुई कि इनके मठाधीश चेलों को तो 'ब्रह्म' का अर्थ 'भ्रम' बतलाते हैं किन्तु हकीकत में उनके मठ ब्रह्ममय हैं ! उनके पूजा-पाठ और चाल-चलन में ब्रह्म ही ब्रह्म है। ब्राह्मण लेखकों द्वारा हर उत्तम और श्रेष्ट को ब्रह्म कहने और प्रचारित करने का यह 'सु-परिणाम' है।
ब्राह्मण लिखता है और हम उसे धारण करते हैं ! मानो वह हमारे लिए ही लिखता हो ? हमारे कई लोग धम्म-लिपि की ब्राह्मी-लिपि लिखते हैं ! आप लाख कहते रहें कि यह धम्मलिपि है, वे नहीं मानेगे। कुछ तो कहने लगते हैं कि हम आपकी बात क्यों माने ? क्या हमने जो पढ़ा है, गलत है ? क्या पाठ्य-पुस्तकों में गलत लिखा है ? क्या यूनिवर्सिटी में गलत पढाया जाता है ? हमारा भाषा-शास्त्र कहता है कि यह ब्राह्मी-लिपि है। हमारे हिंदी के प्रोफ़ेसर कहते हैं कि यह ब्राह्मी लिपि है ! क्या वे गलत हैं ?
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