फिर एक मनुष्य के लिए, करने को क्या रह जाता है ?
‘‘भिक्खुओं! जिन श्रमण ब्राह्मणों का मत है कि कोई आदमी सुख, दुक्ख या असुख-अदुक्ख अनुभव करता है, पूर्व-कर्मों के फलस्वरूप अनुभव करता है। तब मैं उनसे कहता हूँ- तो आयुष्मानों! तुम्हारे मत के अनुसार पूर्व-जन्म के कर्म के फलस्वरूप आदमी प्राणी-हिंसा करने वाले होते हैं! पूर्व-जन्म के कर्म के फलस्वरूप आदमी झूठ बोलने वाले होते हैं? पूर्व-जन्म के कर्म के फलस्वरूप आदमी क्रोधी, लोभी, चुगलीखोर, व्यर्थ-बकवासी होते हैं? तो भिक्खुओं! इस प्रकार वे जो पूर्व-जन्म को ही सारभूत कारण मानने वाले हैं, उनके मन में न तो इच्छा ही जगती है, न ही वे प्रयत्न ही करते हैं और न ही इस काम को करने की या उस काम को न करने की आवश्यकता ही समझते हैं।
तब क्रियावादिता या अक्रियावादिता की वास्तव में आवश्यकता ही नहीं दिखाई देती। तो फिर आपको ‘समण’ कैसे कहा जा सकता है? भिक्खुओं! इस प्रकार का मत, इस प्रकार की दृष्टि रखने वाले समण-ब्राह्मणों पर यह मेरा प्रथम उचित तर्कसंगत दोषारोपण है’’(तित्थायतनादिसुत्तंः महावग्ग:तिक निपातः अंगुत्तर निकाय)।
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