ति-पिटक ग्रन्थ और उनकी आलोचना-
इधर, जब से हमने ति-पिटक ग्रंथों को पढ़ना शुरू किया है, निरंतर मन इन ग्रंथों में भरे ब्राह्मणवाद से तिक्त और व्यथित हो उठता है। इनमें नीच-उंच की बदबू आती है। मन वितृष्णा से भर उठता है। बाबासाहब अम्बेडकर की वह सलाह बेअर्थ लगती है जिसमें वे ति-पिटक ग्रंथों को पढ़ने की सलाह देते हैं।
तब, प्रश्न है, क्या हमें अपनी मुक्तिदाता की सलाह दरकिनार कर देनी चाहिए? हो सकता है, उनकी सलाह दूरगामी हो, जैसे कि अकसर युग प्रवर्तक विचारकों की होती है।
हमने ति-पिटक ग्रंथों को पढ़ना जारी रखा और साथ ही संकल्प लिया कि मूल बुद्धवचनों को प्रकाशित किया जाए साथ ही उन विसंगतियों को भी जो बुद्ध-वचनों से असंगति पैदा करते हैं. दरअसल, असंगत प्रसंग इतने हैं कि मूल बुद्ध वचन अप्रासंगिक हो उठते हैं.
मैंने अपना क्षेत्र आलोचना चुना। वैसे भी आलोचना में हम सिद्धहस्त रहे हैं। हो सकता है, कई लोगों को मेरी आलोचनाए अरुचिकर लगती हो। वे मुझ पर आरोप लगा सकते हैं कि मेरे लेख-प्रलेखों से समाज में धर्म-ग्रंथों के प्रति अनादर की भावना व्यक्त होती है।
तत्सम्बंध में मुझे यह कहना है कि आलोचना हर स्थिति में स्वास्थ्यकारी होती है। इससे गलतियों पर ध्यान जाता है, अपने अन्दर झांकने का साहस बढ़ता है। बशर्त आप ढीढ न हो, जड़ न हो, परिवर्तन के विरोधी न हो।
दरअसल, मैं घृणा करता हूँ, बौद्ध-ग्रंथों में घुसे ब्राह्मणवाद से जिसने बुद्ध के धर्म को निगल लिया था, उसके अपनी जन्म-भूमि से उसे नष्ट कर दिया था। बेशक, मैं अपनी इस घृणा को उचित मानता हूँ, आवश्यक मनाता हूँ। मेरे इस घृणा की जड़ में वे सब आते हैं जो इसका प्रचार करते हैं, हमारे अन्दर धर्म और जाति के नाम पर द्वेष पैदा करते हैं।
मैं अपने मुक्तिदाता की उस बात का कायल हूँ जिसमें वे कहते हैं कि "व्यक्ति का प्रेम और घृणा प्रबल नहीं है तो वह आशा नहीं कर सकता कि वह अपने युग पर कोई प्रभाव छोड़ सकेगा और ऐसी सहायता प्रदान कर सकेगा जो महान सिद्धांतों तथा संघर्ष की अपेक्षी ध्येयों के लिए उचित हो। मैं अन्याय अत्याचार, आडम्बर तथा अनर्थ से घृणा करता हूँ और मेरी घृणा उन सब लोगों के प्रति है, जो इन्हें करते हैं। वे इनके दोषी हैं। मैं अपने आलोचकों को यह बतलाना चाहता हूँ की मैं अपने घृणा-भावों को वास्तविक बल व शक्ति मानता हूँ। वह केवल उस प्रेम की अभिव्यक्ति है, जो मैं इन ध्येयों व उद्देश्यों के लिए प्रकट करता हूँ, जिनके प्रति मेरा विश्वास है. उसके लिए मुझे किसी प्रकार की शर्म नहीं होती"(बाबासाहब डॉ अम्बेडकर: रानाडे, गाँधी और जिन्ना )।
No comments:
Post a Comment