असहमति की आवाज को देश विरोधी, लोकतंत्र विरोधी करार देना संवैधानिक मूल्यों पर चोट करना है,
तो फिर सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध वकील प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी करार देना क्या संवैधानिक मूल्यों पर चोट करना नहीं है? सुप्रीम कोर्ट ने जिस प्रशांत भूषण का कद छोटा करने की कोशिश की उसमें क्या वह स्वयं का कद छोटा नहीं कर है? कहीं आर एस एस संघ के इशारे पर मनुवादी सरकार विरोधियों को जेल भेजने की साजिश तो नहीं की जा रही है? विजय बौद्ध संपादक दि बुद्धिस्ट टाइम्स भोपाल मध्य प्रदेश फोन नंबर 9424756130
सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा था, कि आज देश में असहमति को देशद्रोही समझा जा रहा है, असहमति की आवाज को देश विरोधी या लोकतंत्र विरोधी करार देना संवैधानिक मूल्यों पर चोट करना है,यदि कोई व्यक्ति अलग-अलग राय रखते हैं, तो इसका मतलब यह नहीं है, कि वे राष्ट्र द्रोही है, या राष्ट्र के प्रति सम्मान का भाव नहीं रखते, सरकार और देश दोनों अलग-अलग है,सरकार हमेशा सही नहीं होती और जो उनका विरोध करते हैं, उन पर देशद्रोह होने का ठप्पा नहीं लगाया जा सकता। लोकतंत्र में हर नागरिक को अपनी जिम्मेदारी निभानी होती है, जब भी विचारों का संघर्ष होगा तो असंतोष उभेरेगा। सवाल उठाना लोकतंत्र में अंतर्निहित है, यह विचार सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के लोकतंत्र असंतोष विषय पर आयोजित व्याख्यान में कहा था। फिर प्रशांत भूषण ने दो ट्वीट ही कर मात्र अपनी असहमति ही तो व्यक्त की थी, उस ट्वीट पर सुप्रीम कोर्ट को उनके खिलाफ मुकदमा चलाकर उन्हें दोषी करार कैसे दे दिया गया? प्रशांत भूषण ने न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार के मुद्दे को ही तो उठाया था? एक मामला पिछले महीने प्रशांत भूषण द्वारा किए गए ट्वीट पर की गई टिप्पणियों का है, और दूसरा मामला 11 वर्ष पूर्व का है, जो उन्होंने कहा था कि 16 मुख्य न्यायाधीशों में से आधे भ्रष्ट है। इस पूरे मामले में स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव ने कहा है, कि जिस कोर्ट के पास इलेक्ट्रोल बॉन्ड व नागरिकता कानून जैसे राष्ट्रीय महत्व के मुकदमे के लिए समय नहीं है, उस सुप्रीम कोर्ट के पास दो ट्वीट पर मुकदमा चलाने के लिए कैसे समय मिल गया? 32 जजों वाले सुप्रीम कोर्ट में इन दोनों मामले को न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की बेच के सामने ही क्यों सौंपा गया? क्योंकि प्रशांत भूषण ने न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा पर न्यायाधीश की मर्यादा का सवाल उठाते हुए कहा था,कि बिरला सहारा केस में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जो प्रमुख आरोपियों में से एक थे, उनके विरुद्ध चल रहे केस को खारिज कर दिया और शिवराज सिंह चौहान को अपने पारिवारिक शादी में आमंत्रित किया था,ज्ञातव्य हो कि न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस और शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री से उनके गहरे संबंध थे, उसके बाद से ही कई बार न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा ने खुली अदालत में प्रशांत भूषण पर टिप्पणी कर उन पर अवमानना का केस चलाने की धमकी दे चुके थे, उसी जज के सामने प्रशांत भूषण का केस क्यों लगाया गया? रही बात पुराने जजों के भ्रष्टाचार के बारे में तो प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर 11 जज का नाम लेकर उनके भ्रष्टाचार के दस्तावेज सबूत सहित पेश किए थे, परंतु सुप्रीम कोर्ट ने सबूतों की जांच और उन पर खुली चर्चा के लिए तैयार नहीं हुई, उनका आरोप है,कि ओहदे का फायदा उठाकर व्यक्तिगत खून्स निकाल रहे हैं, और आलोचक का मुंह और बाकी सब की आंख बंद करने पर तुले हुए हैं, ठीक इसी तरह से मद्रास हाई कोर्ट के ईमानदार दलित सिटिंग जज जस्टिस सीएस कर्नन ने भी जजों के भ्रष्टाचार के खिलाफ कई आरोप लगाकर उनकी जांच कार्यवाही के लिए प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था, सरकार, संसद ने कोई जांच कार्यवाही न करते हुए शिकायत को सीधे सुप्रीम कोर्ट भेज दिया था, और फिर क्या हुआ, एक न्यायालयीन जंग छिड़ गई, और आखिर सुप्रीम कोर्ट ने एक बेगुनाह इमानदार दलित हाई कोर्ट के जज जस्टिस करनन पर भी अवमानना का मुकदमा चलाया और उनके सेवानिवृत्त होते ही उन्हें जेल भेजा गया, छह माह की सजा सुना दी गई थी। आखिर कोई जिम्मेदार व्यक्ति यदि सच्चाई को सामने लाना चाहता है, तो उसे क्यों दफन कर दिया जाता है? यदि जस्टिस करनन ने जजों के भ्रष्टाचार में लिप्त होने की शिकायत प्रधानमंत्री को की थी तो उसकी जांच करना चाहिए था, यदि जांच में निर्दोष पाए जाते तो जस्टिस करनन के खिलाफ कार्रवाई करना था, परंतु ऐसा न कर उस भ्रष्टाचार पर मुहर लगाने का कृत्य किया गया। अब सुप्रीम कोर्ट के 4 जजों की पत्रकार वार्ता और उन्होंने क्या कहा था, यह भी सामने लाना और देश को याद दिलाना बहुत जरूरी समझता हूं, यही सुप्रीम कोर्ट के 4 जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा था कि लोकतंत्र खतरे में है, हम नहीं चाहते कि 20 वर्ष बाद कोई बुद्धिजीवी कहे कि जजों ने अपनी आत्मा बेच दी है, इसलिए हमने मीडिया से बात करने का फैसला किया, भारत समेत किसी भी देश में लोकतंत्र बरकरार रखने के लिए यह जरूरी है,कि सुप्रीम कोर्ट जैसी संस्था सही ढंग से काम करें। हमने चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा से बात की है, परंतु उन्होंने हमारी बात नहीं सुनी,उच्चतम न्यायालय के प्रशासन में सब कुछ ठीक नहीं होता बहुत सी चीजें हुई जो नहीं होना चाहिए, यदि सुप्रीम कोर्ट इस संस्था को नहीं बचाया गया तो इस देश का लोकतंत्र जिंदा नहीं रह पाएगा। स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका अच्छे लोकतंत्र की निशानी है। जो आज खतरे में है, सुप्रीम कोर्ट स्वयं कहता है, कि हम दबाव में है, यहां सब कुछ ठीक नहीं है, यदि हम आवाज नहीं उठाएंगे तो लोकतंत्र खतरे में आ जाएगा। तो प्रशांत भूषण को सरकार के दबाव में या व्यक्तिगत प्रतिद्वंद्विता के कारण कहीं सजा तो नहीं दी जा रही है? और क्या ऐसा करके कहीं और असहमति की आवाज को दबाया तो नहीं जा रहा है? क्या न्यायपालिका सरकार की हथियार के रूप में काम तो कर रही है? यह कई सवाल देश के सामने खड़े होते हैं, और लाजमी भी है, जिन 4 जजों के प्रेस कॉन्फ्रेंस में जस्टिस रंजन गोगोई थे, उन्होंने भी अयोध्या विवादित ढांचे के मामले में आस्था के आधार पर एक पक्षीय असंवैधानिक फैसला दिया है , वह भी सरकार के दबाव एवं प्रलोभन में दिया गया फैसला है, और इसके ईमान स्वरूप सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद ही सरकार ने उन्हें राज्यसभा सांसद मनोनीत कर दिया,इसी तरह मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को पदोन्नति में आरक्षण समाप्त किए जाने के आदेश पारित किए जाने पर सुप्रीम कोर्ट का जस्टिस बना दिया गया था, वही कुछ जजों को रिटायरमेंट के बाद सरकार ने राज्यपाल बना दिया था, जस्टिस रंजन गोगोई द्वारा अयोध्या विवादित ढांचे में दिए गए एक पक्षीय फैसले एवं उनके सेवानिवृत्ति के बाद सरकार द्वारा राज्यसभा में मनोनयन पर देश एवं दुनिया के कानूनविदो रिटायर्ड जजों बुद्धिजीवियों ने कड़े शब्दों में निंदा की थी, ठीक उसी तरह प्रशांत भूषण को अवमानना मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दोषी करार दिए जाने पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस आरएम लोढ़ा ने कहा देश विकराल महामारी के बीच एक आभासी अदालत के माध्यम से प्रशांत भूषण के खिलाफ मामले की सुनवाई के लिए आखिर सुप्रीम कोर्ट ने इतनी जल्दी क्यों की? वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेडगे ने कहा कि अदालत द्वारा अवमानना की शक्ति के इस्तेमाल में यह भी जाचा जाना चाहिए कि इस मामले के जरिए कैसे उसके अधिकार को कम कर दिया गया है, यह निर्णय अदालत के खुद के लिए न्योयचित नहीं है,क्योंकि इसमें अदालत का अधिकार महज 2 ट्वीट के जरिए आता गया है, जनता का भरोसा और अदालत का अधिकार उससे अधिक मजबूत नींव पर टिका है,विपक्षी दलों ने सवाल उठाया की सुप्रीम कोर्ट में संविधान के अनुच्छेद 370 को रद्द करने कश्मीर में राजनीतिक नेताओं के लिए दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका 1 साल से अधिक लंबित है, उन पर सुनवाई नहीं कर, प्रशांत भूषण के मात्र ट्वीट पर अवमानना की कार्यवाही कर उन्हें दोषी करार देना न्यायचित नहीं है, सीपीआईएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने ट्यूट्स की एक श्रृंखला में कहा कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला खतरनाक है,संवैधानिक प्राधिकारी के रूप में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निभाई गई भूमिका की समकालीनता द्वंदात्मक आलोचना के बारे में लाता है, डी राजा ने उक्त फैसले पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट के 4 जजों ने जब प्रेस कॉन्फ्रेंस में उच्चतम न्यायालय के कामकाज पर सवाल उठाया था, तो क्या वह अवमानना नहीं थी? जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन जन आंदोलन हो रहे थे,तब आरक्षण कानूनों को कमजोर किया जा रहा था, वरिष्ठ वकील मजीद ने ट्वीट किया कि न्यायालय और न्यायाधीशों को घोटाले से बचाने के लिए 1971 के अधिनियम की अवमानना है, सर्वोच्च न्यायालय सर्वोच्च है,क्योंकि यह सर्वोच्च और अंतिम अदालत है,इसलिए नहीं कि यह अचूक है, या गलत नहीं है,वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर टिप्पणी कर कहा है,कि प्रशांत भूषण पर अवमानना का जो आदेश आया है, उस पर अगर हम कुछ कह सकते हैं,तो यह एक महान संस्थान खुद को नीचा दिखा रही है, वरिष्ठ पत्रकार ए एन राम ने कहा है, कि हमारे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के लिए यह काला दिन है, जो हमारे लोकतांत्रिक संविधान और आजादी के संघर्ष की देन है, योगेंद्र यादव ने फिर लिखा है, प्रशांत भूषण सुनो,,,,,, सत्य सूली पर चढ़ेगा, यह सुकरात काल है, जिनके न्याय के लिए लड़ रहे हो ना, वह विकास के लिए खामोश रहेंगे,। मुर्दा समाज बोलता नहीं है। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने प्रशांत भूषण मामले में कहा है, कि सुप्रीम कोर्ट ने इससे खुद का कद नीचे किया है,इस फैसले से सुप्रीम कोर्ट ने खुद को और लोकतंत्र को नीचा दिखाया है, यह भारतीय लोकतंत्र के लिए काला दिन है, जाने-माने इतिहासकार इरफान हबीब ने तो यहां तक कह दिया कि प्रशांत भूषण को दोषी ठहराए जाने की तुलना ब्रिटिश हुकूमत से कर डाली, उन्होंने लिखा कि सुप्रीम कोर्ट ने स्वतंत्रता दिवस की शाम को प्रशांत भूषण को दोषी करार दिया है, ब्रिटिश काल में भी किसी विरोध या आलोचना करने वाले वकीलों, कवियों, लेखकों,और बुद्धिजीवियों को इस तरह सजा नहीं दी गई, वरिष्ठ पत्रकार जे पी सिहं की बाल से कुछ अंश लिए गए हैं, देशभक्त एवं संविधानविद बुद्धिजीवियों का यहां तक कहना है कि सुप्रीम कोर्ट न्याय स्थापित करने के लिए बनाया गया था,लेकिन सुप्रीम कोर्ट 2014 से आर एस एस संघ के आंगन में नाच रहा है, सुप्रीम कोर्ट न्याय एवं लोकतंत्र के रक्षक की जगह सत्ता के उपकरण के रूप में काम कर रहा है,आरक्षण विरोधी फैसले दे रहा है, वही स्वर्णो को आर्थिक आधार पर आरक्षण देकर संविधान विरोधी कृत्य कर रहा है, ओबीसी के आरक्षण (मंडल आयोग) को 2 वर्षों से जानबूझकर सुनवाई नहीं कर पा रहा है, बिना किसी सबूत के आर एस एस संघ के सरकार के दबाव में राम जन्मभूमि राम मंदिर बनाने का हिंदुओं के आस्था के आधार पर उनके पक्ष में असंवैधानिक फैसला दे दिया गया, यह देश की सबसे बड़ी और लोकतांत्रिक संस्था है, जिसमें बिना किसी चुनाव या परीक्षा के जज नियुक्त होते हैं,और ज्यादातर एक परिवार या विशेष जाति के ब्राह्मण ही नियुक्त होते हैं, यह मुट्ठी भर उच्च जाति मर्दों की कुलीन तंत्रीय मनुवादी ब्राह्मणवादी संस्था है, जो अब खुलकर संघ के इशारे पर और असंवैधानिक फैसले देकर असहमति की आवाजों को कुचलने का घृणित कृत्य कर रही है, प्रशांत भूषण को भी दोषी ठहराना उनकी सरकार विरोधी नीतियों के खिलाफ उठी आवाज को कुचलने का एक सुनियोजित षड्यंत्र है, सर्वोच्च न्यायालय कई फैसले मनुवादी व्यवस्था सरकार के दबाव एवं प्रलोभन में देता है, सुप्रीम कोर्ट के 2 जजों की बेंच ने मार्च 2018 को आदेश जारी कर एससी एसटी एक्ट एट्रोसिटी एक्ट के प्रावधानों को ही निष्प्रभावी कर दिया था, इसके एवज में उपहार बतौर एक जज को सरकार ने सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद ही पर्यावरण मंडल का अध्यक्ष बना दिया था, फिर इस निर्णय के खिलाफ सड़कों से लेकर संसद तक जन आंदोलन हुआ जिसके तहत सरकार एवं सुप्रीम कोर्ट को अपने पूर्व फैसले को पलटने मजबूर होना पड़ा, इस निष्प्रभावी किए गए प्रावधानों को जैसे के तैसे रखा गया, और सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया कि देश में इस वर्ग के साथ आज भी भेदभाव हो रहा है समानता और अधिकारों के लिए उनका संघर्ष खत्म नहीं हुआ है, वह छुआछूत दुर्व्यवहार और सामाजिक बहिष्कार अभी भी झेल रहे हैं, यह मानकर नहीं चल सकते की पूरी बिरादरी ही कानून का गलत इस्तेमाल करेगी। सब को झूठा और बदमाश समझना मानवीय गरिमा के खिलाफ होगा,एससी एसटी एक्ट के तहत गिरफ्तारी और जांच से जुड़ी गाइडलाइंस तय करने वाला फैसला सुप्रीम कोर्ट का गलत था, यह काम कोर्ट का नहीं विधायिका का है, संविधान के तहत ऐसे निर्देश स्वीकार नहीं है, किसी कानून के गलत इस्तेमाल की संभावना पर प्रावधान हल्के निष्प्रभावी नहीं किए जा सकते, यदि इस परिवर्तित कानून के खिलाफ सड़क से लेकर संसद तक जन आंदोलन नहीं होता तो न सरकार इस कानून के खिलाफ कोई ठोस कदम उठाती ना सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले को बदलता,भूषण को अवमानना का दोषी करार देने वाले जस्टिस अरुण मिश्रा ने ही, कंपनियों और दूरसंचार विभाग को 1.6 40 लाख करोड़ रुपए चुकाने के फैसले पर अमल नहीं होने पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, मैं बहुत हैरान और परेशान हूं कि कोर्ट के आदेश के बावजूद एक भी पैसा नहीं दिया गया, इस देश में क्या हो रहा है, एक अफसर ने कोर्ट का आदेश रोकने का दुस्साहस कैसे किया? क्या कोर्ट के आदेश की कोई कीमत नहीं है? क्या देश में कोई कानून नहीं है? मुझे इस देश में काम नहीं करना चाहिए, सुप्रीम कोर्ट को बंद कर देते हैं, देश छोड़ना ही बेहतर होगा, दौलत के दम पर वह कुछ भी कर सकते हैं, कोर्ट का आदेश भी रोक सकते हैं, मेरा मानना है कि जस्टिस अरुण मिश्रा ने उक्त अवमानना केस मैं इतने हैरान और परेशान होने के बाद भी इस देश में काम करना बंद नहीं किया, सुप्रीम कोर्ट बंद नहीं किया, देश नहीं छोड़ा परंतु उस अफसर एवं सरकार को दोषी करार देकर जेल भेजना जरूरी नहीं समझा,परंतु दो ट्वीट पर सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध विद्वान एवं इमानदार वकील प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी करार दे दिया ,और उसे सजा देना चाहते हैं, जेल भेजना चाहते हैं, इस पूरे मामले में अधिवक्ता एवं उच्च शोधार्थी डॉक्टर आर एल कांनडे ने प्रशांत भूषण मामले में कहा है, कि प्रशांत भूषण को अवमानना में सजा दोषी ठहराने के पूर्व पूरे प्रकरण को बार काउंसिल भेजना चाहिए था, बार काउंसिल यदि उन्हें दोषी मानता तो उनकी सदस्यता खत्म कर देता, और यह मामला संसद में भेजा जाना चाहिए था, यदि संसद उन्हें दोषी करार देता तभी उन्हें दोषी करार दिया जा सकता था, प्रशांत भूषण देश के सर्वोच्च न्यायालय अंतिम कोर्ट के वकील है, जहां अपील नहीं की जा सकती यदि यह मामला लोअर कोर्ट का होता तो अपील की जा सकती थी, ऐसी स्थिति में उन्हें अवमानना का दोषी करार देना उचित नहीं है, वकील स्वतंत्र होते हैं, और उन्हें अभिव्यक्ति का अधिकार है, सुप्रीम कोर्ट के जज कोई भगवान नहीं है, वह नौकरशाह है, सेवा के बदले सरकार से वेतन लेते हैं, और वे सरकार के दबाव में लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी नहीं छिन सकते, प्रशांत भूषण एक प्रतिष्ठित एवं इमानदार सुप्रसिद्ध वकील है, उन्हें इस तरह असंवैधानिक तरह से द्वेष पूर्ण भावना से एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत दोषी करार देना लोकतंत्र एवं संविधान की हत्या करना है, उच्च स शोधार्थी होने के नाते माननीय सुप्रीम कोर्ट से अपील करता हूं, कि वे प्रशांत भूषण जैसे सच्चे देशभक्त लोकतंत्र के रक्षक के खिलाफ दिए गए निर्णय को तत्काल वापस ले अन्यथा इस फैसले के खिलाफ भी देश के तमाम वकील सड़कों पर उतरेंगे इससे न्यायालय की गरिमा को ठेस पहुंचेगी और न्यायालय से लोगों का विश्वास खत्म हो जाएगा,
यदि प्रजातंत्र के सजग प्रहरी वकीलों के खिलाफ दुर्भावना वश सरकार के दबाव प्रलोभन में निर्णय लिए गए तो जब इतिहास लिखा जाएगा, तो इन जजों के खिलाफ काले अक्षरों में नाम लिखा जाएगा जस्टिस रंजन गोगोई को देश एवं आने वाली पीढ़ी अभी कभी माफ नहीं करेगी।।।।
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