सन् 1864 में ब्रिटिश उपनिवेश श्रीलंका में न्यायाधीश नियुक्त हुए थोमस विलियम राइस डेविड्स (T.W. Rhys Devids)। उनके काल में न्यायालय में एक दिन एक 'छोटी-सी' ऐसी घटना हुई जो छोटी होकर भी बहुत बड़ी साबित हुई।
हुआ यह कि न्यायाधीश टी. डब्ल्यू. राइस डेविड्स के सामने एक बुद्ध विहार के भूमि-विवाद का मामला आया। साक्ष्य के रूप में जो दस्तावेज पेश किए गए उन्हें अदालत में उपस्थित कोई भी व्यक्ति नहीं पढ़ सका। राइस डेविड्स खोज में लग गए कि यह दस्तावेज कौन पढ़ सकता है। ज्ञात हुआ कि एक वयोवृद्ध बौद्ध भिक्षु यात्रामुल्ले उन्नानसे इस भाषा को पढ़ सकते हैं। उनके पास पहुँचकर राइस डेविड्स को मालूम हुआ कि वह दस्तावेज पालि भाषा की प्राचीन लिपि में है। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक श्रीलंका में भी पालि भाषा लुप्तप्राय हो चुकी थी और सिंहली भाषा प्रचलन में थी तथा ब्रिटिश उपनिवेश होने के कारण नई पीढ़ी में अंग्रेजी सीखने का आकर्षण अधिक हो गया था। इंसाइक्लोपीडिया ऑफ बुद्धिस्म में आई. बी. होरनर की प्रविष्टि है, '...जो दस्तावेज राइस डेविड्स के सामने पेश किए गए थे वे 'विनय पिटक' में से कोई अमूल्य वचन थे। उनका अर्थ सुनकर राइस डेविड्स के हृदय में उस अविदित भाषा को सीखने का प्रबल विचार उत्पन्न हो गया था।
यह ‘छोटी-सी' घटना पश्चिम में बौद्ध धर्म के विस्तार में 'मील का पत्थर' साबित हुई।
राइस डेविड्स ने वयोवृद्ध भिक्षु यात्रामुल्ले उन्नानसे से पालि भाषा सिखाने की प्रार्थना की। यद्यपि वे भिक्षु उस समय बहुत बीमार थे, वृद्ध थे तो भी वे इस युवा जिज्ञासु अंग्रेज को पालि सिखाने के लिए राजी हो गए। राइस डेविड्स ने पूरी लगन से पालि भाषा सीखी। ऐसा कैसे हो सकता है कि फूल हाथ में आए और खुशबू दूर रह जाए! पालि भाषा अगर फूल है तो उसमें खुशबू हैं बुद्ध के वचन। पालि सीखने के बहाने राइस डेविड्स बुद्ध के धर्म की भीनी खुशबू में नहा गए।
उन्होंने आगे का शेष जीवन पालि भाषा और बौद्ध धर्म के उत्थान में बिताया- 'दि एनशिएंट क्वायंस एंड मेजरमेंट ऑफ सीलोन (1877), मैनुअल ऑफ बुद्धिज्म (1878), जातक कथाएँ (1880), बुद्धिस्ट-सुत्तास् (1881), विनय टेक्सट्स (1885), पालि- अंग्रेजी शब्दकोश, अभिधम्मत्थ संग्रह (संपादन , 1884), दीघ निकाय की अटुकथा ‘सुमंगल विलासिनी' (संपादन,1886), बुद्धिज्म: इट्स हिस्ट्री एंड लिटरेचर (भाषण-संग्रह, 1896), बुद्धिस्ट इंडिया (भारत के बौद्ध तीर्थों की यात्रा पर आधारित ग्रंथ, 1903), दीघ निकाय: डायलॉग ऑफ दि बुद्धा (1921), मिलिंद पन्हो और क्वेशचंस ऑफ किंग मिलिंद इत्यादि विशाल ग्रंथ संपदा का स्वयं उन्होंने सृजन , अनुवाद व संपादन किया। और जो सबसे बड़ा ऐतिहासिक काम उन्होंने किया, जिस कारण राइस डेविड्स हमेशा के लिए अमर हो गए हैं, सन् 1881 में लंदन में उन्होंने 'पालि टेक्स्ट सोसाइटी' की स्थापना की। गत लगभग सवा सौ वर्षों में, यह इस सोसाइटी का योगदान है, लगभग संपूर्ण 'त्रिपिटक' मूल पालि से अंग्रेजी भाषा में अनूदित हो चुका है। 'त्रिपिटक' के अनुवाद में थाईलैंड के तत्कालीन नरेश ने विशेष रूप से आर्थिक योगदान दिया था। यूरोप की अन्य भाषाओं में अनुवाद अभी तक जारी है।
राइस डेविड्स के इस महान् योगदान को उनकी पत्नी कैरोलाइन अगस्ता फोली का एक कथन संपूर्णता से व्यक्त कर देता है- 'वह बौद्ध धर्म के मैक्समूलर हैं।'
राइस डेविड्स की अदालत में पेश हुए अविदित भाषा के उस दस्तावेज की घटना ने पश्चिम के बौद्ध जगत् में इतनी क्रांतिकारी भूमिका अदा की कि आज पूरे यूरोप महाद्वीप के देशों के विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में पालि भाषा और बौद्ध धर्म शामिल हो चुके हैं।
पालि टेक्स्ट सोसाइटी के संपर्क में आने के बाद जर्मन विद्वान् मैक्समूलर ने अपने जीवन का अधिकांश समय जर्मनी की अपेक्षा इंग्लैंड में बिताया। वे भारतीय विद्याओं से अतिशय प्रभावित थे। उन्होंने 'सेक्रेड बुक्स ऑफ ईस्ट सीरीज़' ग्रंथ माला का संपादन शुरू किया, जिनमें बौद्ध धर्म पर अनेक विशेषांक छापे-इस शृंखला के उनचास खंड प्रकाशित हुए। बाद में उन्होंने बौद्ध धर्म के लिए अलग से एक ग्रंथमाला शुरू की- 'सेक्रेड बुक्स ऑफ दि बुद्धिस्ट सीरीज़' नाम से-जिसमें प्रकाशित बौद्ध सामग्री ने पूरे यूरोप में तहलका मचा दिया। यह अपने समय की यूरोप के विद्वानों व बुद्धिजीवियों के बीच सबसे लोकप्रिय ग्रंथ-शृंखला थी। इन शृंखलाओं के माध्यम से 'आगम सूत्र', 'अमिताभ सूत्र', 'सद्धर्मपुण्डरीक सूत्र' (लोटस सूत्रा) आदि अमूल्य बौद्ध ग्रंथ पश्चिमी जगत् के सामने आए।
पश्चिमी देशों में, ब्रिटेन में, बुद्ध की धम्म-सत्ता के पदार्पण की यह शुरुआत थी।
पालि टेक्स्ट सोसाइटी के अलावा इसके पहले बौद्ध धर्म व भारतीय दर्शन में रुचि रखने वाली ब्रिटिश प्रतिभाओं ने कुछ अन्य संस्थाओं की भी स्थापनाएँ की थीं, जिसने ब्रिटेन में बौद्ध धर्म के पदार्पण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की । सर विलियम जोन्स (1746-94) द्वारा संस्थापित 'एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बेंगाल' तथा 'रॉयल एशियाटिक सोसाइटी' ने भारत, नेपाल, श्रीलंका से प्राप्त दुर्लभ बौद्ध पांडुलिपियों का संग्रह एवं संरक्षण किया । उनके अंग्रेजी रूपांतर किए । नेपाल में नियुक्त ब्रिटिश अधिकारी बी. एच. हाँगसन (B. H. Hodgson) ने पांडुलिपि संग्रह में विशेष श्रम किया।
भगवान बुद्ध के जीवन-दर्शन पर आधारित सर एडविन अर्नाल्ड की लंबी कविता , दरअसल खंडकाव्य, 'द लाइट ऑफ एशिया' ने अकेले अनेक पाश्चात्यों को बुद्ध का भक्त बना दिया। इस कविता में एडविन अर्नाल्ड ने भगवान् बुद्ध को संपूर्ण एशिया महाद्वीप का आलोक कहा है। इस कविता ने अनेक हृदयवानों एवं विद्वानों को प्रभावित किया, जिनमें एलन बेनेट मैक ग्रिगोर (1872-1923) को यह गौरव प्राप्त है कि पश्चिम में बौद्ध धर्म की भिक्षु-दीक्षा लेने वाले वह पहले व्यक्ति बने। वे उस समय बर्मा में नियुक्त थे। इस कविता से प्रभावित होकर उन्होंने संपूर्ण जीवन बुद्ध के चरणों में दान कर दिया तथा 1901 में बर्मा में त्रिशरण-पंचशील की दीक्षा लेकर उनका बौद्ध नामांतर हुआ 'आनंद मैत्रेय'। भविष्य में भिक्षु आनंद मैत्रेय, सन् 1907-08 में, बौद्ध भिक्षुओं का पूरा एक दल लेकर बर्मा से इंग्लैंड गए और वहाँ 'बुद्धिस्ट सोसाइटी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड' की स्थापना की। 'दि बुद्धिस्ट' (मासिक पत्रिका) का प्रकाशन शुरू किया।
भिक्षु आनंद मैत्रेय के समकालीन ही एक और उत्साही अंग्रेज जे. एफ. मैक' केन्नी ने भी बौद्ध धर्म में भिक्षु-दीक्षा ली। उनका दीक्षा नाम हुआ- 'सीलाचार'। भिक्षु सीलाचार की दुकान पर 'दि बुद्धिस्ट' पत्रिका बिकती थी। इस पत्रिका ने बहुत लोगों को बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित किया। इसमें जापानी जेन विद्वान् डॉ. डी.टी. सुजुकी और पालि टेक्स्ट सोसाइटी के संस्थापक राइस डेविड्स जैसे स्वनामधन्य विद्वान् लोग लेख लिखते थे।
इंग्लैंड में बौद्ध धर्म के शुरुआती वर्षों में थेरवादी परंपरा का प्रभाव अधिक था, क्योंकि शुरू में ब्रिटेन में बौद्ध धर्म का स्वरूप बरास्ता श्रीलंका पहुँचा। श्रीलंका के पालि ग्रंथ थेरवाद पर आधारित हैं। बीसवीं शताब्दी के मध्य के बाद से बौद्ध धर्म की अन्य परंपराओं का भी ब्रिटेन में प्रवेश हुआ- महायान, वज्रयान, जेन इत्यादि।
सन् 1934 में 'ब्रिटिश महाबोधि सोसाइटी' के प्रयासों से इंग्लैंड में पहली बार बुद्ध जयंती मनाई गई। यह जयंती लंदन के केक्सटन हॉल (Caxton Hall) में मनाई गई, जिसमें क्रिसमस हमफ्रीस, डा. बी. ई. फर्नेन्डो, चार्ल्स गैलोव और एलन वाट जैसे विद्वानों ने व्याख्यान दिए। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद चीन व भारतीय उपमहाद्वीप से लगभग पचास हजार बौद्धों ने ब्रिटेन में बतौर शरणार्थी प्रवेश किया, जिनमें सभी परंपराओं के बौद्ध थे। इस प्रकार इंग्लैंड में बौद्ध धर्म की विविध परंपराओं का प्रवेश हुआ । यह तो आकस्मिक था, अलावा इसके प्रायोजित रूप से भी अनेक परंपराओं के बौद्ध-प्रचारकों ने इंग्लैंड को अपना केंद्र बनाया।
एनी बीसेंट द्वारा संचालित थियोसोफिकल सोसाइटी भी बौद्ध प्रभाव से अछूती नहीं रही। सन् 1924 में इस सोसाइटी के अंतर्गत एक बुद्धिस्ट सेंटर की स्थापना हुई। सन् 1926 में 'बुद्धिज्म इन इंग्लैंड' नामक लोकप्रिय मासिक पत्रिका का प्रकाशन इसी सेंटर द्वारा शुरू हुआ।
सन् 1925 में श्रीलंका से बौद्ध-प्रचारकों का पूरा एक दल अनागारिक भिक्षु धर्मपाल के नेतृत्व में इंग्लैंड पहुंचा। उन्होंने वहाँ 'ब्रिटिश महाबोधि सोसाइटी' की स्थापना की। इस सोसाइटी ने इंग्लैंड में बुद्ध की धम्म-सत्ता के प्रचार-प्रसार में बहुत बड़ा योगदान दिया।
सन् 1927 में अनागारिक भिक्षु धर्मपाल के ही नेतृत्व में एक और भिक्षु - दल इंग्लैंड पहुंचा।
सन् 1928 में चीन से एक बौद्ध भिक्षु ताई-सु (Tai - Hsu) इंग्लैंड पहुँचे। उन्होंने इंग्लैंड में बौद्ध धर्म की स्थापना, प्रचार-प्रसार में उल्लेखनीय काम किया।
तिब्बत में साम्यवादी चीन के अतिक्रमण के बाद वर्तमान दलाई लामा का भारत में शरणार्थी जीवन-निर्वाह भी प्रकारांतर से पश्चिम में बौद्ध धर्म के प्रचार में सहायक हुआ है। दलाई लामा की निरंतर विदेश यात्राओं ने इंग्लैंड में अनेक तिब्बती बौद्ध केंद्र स्थापित कर दिए हैं। वर्ष 1989 में दलाई लामा को दिए गए नोबेल पुरस्कार के द्वारा एक तरह से बौद्ध जगत् के एक नायक को मान्यता दी गई है। इस घटना ने भी पश्चिमी देशों में बौद्ध धर्म के प्रति रुचि जाग्रत की है।
सन् 1967 में अंग्रेज भिक्षु भंते संघरक्षित द्वारा इंग्लैंड में स्थापित संस्था 'फ्रेंडस ऑफ वेस्टर्न बुद्धिस्ट ऑर्डर' ने पश्चिमी देशों में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में एक नया अध्याय जोड़ दिया है।
कदाचित् संघरक्षित, मूलनाम डेविड फिलिप एडवर्ड लिंगवुड, पहले ऐसे ब्रिटिश हैं जिन्होंने बौद्ध धर्म का क्रमबद्ध, विधिवत् अध्ययन किया है और बौद्ध धर्म की विभिन्न साधना-पद्धतियों का व्यक्तिगत रूप से अभ्यास एवं अनुभव किया है। उन्होंने बौद्ध धर्म का व्यवहारिक अध्ययन एवं सघन ध्यान-साधना करते हुए लगभग बीस वर्ष भारत में बिताए। इस प्रवास के दौरान वे भारत के संविधान - शिल्पी डॉ. बी. आर. अंबेडकर के संपर्क में आए। 14 अक्तूबर, 1956 को डॉ. अंबेडकर द्वारा सामूहिक रूप से नागपुर में ली गई ‘बौद्ध धर्म दीक्षा' कार्यक्रम ने भंते संघरक्षित को एकदम हतप्रभ कर दिया। इस कार्यक्रम से उन्हें प्रेरणा मिली कि बौद्ध धर्म सिर्फ व्यक्तिगत मुक्ति ही नहीं बल्कि सामूहिक-सामाजिक रूपांतरण भी कर सकता है। इस सामूहिक दीक्षा कार्यक्रम से प्रेरित होकर भंते संघरक्षित ने 1967 में इंग्लैंड में 'फ्रेंड्स ऑफ वेस्टर्न बुद्धिस्ट ऑर्डर' नामक संस्था की स्थापना की, जिसकी लगभग 50 देशों में शाखाएँ हैं। भारत में यही संस्था 'लोक्य बौद्ध महासंघ सहायकगण' नाम से, 1979 से काम कर रही है और सच में पूरी दुनिया में सामूहिक-सामाजिक रूपांतरण को अंजाम दे रही है।
दलाई लामा के बाद बौद्ध जगत् में आज दूसरा सबसे सम्मानित नाम भंते संघरक्षित का ही है। उन्होंने पश्चिमी देशों को आज की आवश्यकताओं के अनुरूप नए तरह का भिक्षु-संघ दिया है। उन्होंने विपुल मात्रा में साहित्य-सृजन भी किया है। लगभग पचास किताबें बौद्ध धर्म पर लिखी हैं। ‘ए सर्वे ऑफ बुद्धिज्म' और 'एट फोल्ड पाथ'- उनकी ये किताबें बौद्ध जगत् के विद्वानों के बीच संदर्भ ग्रंथों की तरह उपयोग की जाती हैं।
धरती के विभिन्न भूखंडों में बुद्ध की धम्म-सत्ता के विस्तार का बारीक अध्ययन बताता है कि यह तीन चरणों में स्थापित होती है।
प्रथम चरण में विद्वान् व बुद्धिजीवी बौद्ध धर्म के दार्शनिक पक्ष की ओर आकर्षित होते हैं, बुद्ध व बौद्ध धर्म दार्शनिक-बौद्धिक चर्चा का विषय बनते हैं। स्थानीय मान्यताओं व स्थापित दर्शनों के साथ उसका तुलनात्मक अध्ययन शुरू होता है।
दूसरे चरण में आम आदमी बौद्ध धर्म की ओर आकर्षित होते हैं, लेकिन उन्हें आकर्षित करने में बाहरी प्रचारक प्रयास करते हैं।
तीसरे चरण में स्थानीय लोग बौद्ध धर्म में दीक्षा लेते हैं, भिक्षु बनते हैं, फिर वे अपने समाज में अपनी भाषा में बौद्ध धर्म का प्रचार शुरू करते हैं। तीसरे चरण में बौद्ध धर्म स्थानीय रूप लेने लगता है, वह विदेशी, आयातित, धर्म नहीं रह जाता।
तीसरे चरण के बाद बौद्ध धर्म का वास्तविक विकास शुरू होता है। इतिहास का अध्ययन बताता है कि इस पूरी प्रक्रिया में, किसी भी देश में, कम से कम पाँच सौ साल लगते हैं।
पश्चिमी देशों में अब बौद्ध धर्म तीसरे चरण में प्रवेश कर चुका है। उन देशों में आज लाखों की संख्या में बौद्ध भिक्षु तैयार हो चुके हैं। अकेले इंग्लैंड में इस समय लगभग सवा दो लाख बौद्ध हैं, जिनमें लगभग 100 केंद्र तिब्बती बौद्ध धर्म से प्रभावित हैं, 90 थेरवादी केंद्र हैं और लगभग 100 केंद्र फ्रेंड्स ऑफ वेस्टर्न बुद्धिस्ट ऑर्डर के हैं। (यह संस्था अब त्रिरत्न बौद्ध महासंघ के नाम से जानी जाती है।)
["बुद्ध का चक्रवर्ती साम्राज्य", पुस्तक का एक अध्याय]
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