काफी
मित्र फोन कर करके पूछ रहे हैं कि एकाएक चन्द्र्शेखर रावण को कैसे छोड़ दिया गया. मैं करीब जनवरी से कह रहा हूँ कि चन्द्रशेखर को सरकार अगस्त से अक्तूबर माह के बीच
में कभी भी खुद ही छोड़ देगी, और वो ही सिद्ध हुआ. इसे जानने के
लिए पुरे घटनाक्रम पर नजर डालते है..
1. मामले
की शुरुआत सहारनपुर के शब्बीरपुर गाँव से होती है, जिसमे ठाकुर पक्ष को यह बात चुभ
रही थी कि गाँव में लगभग 50% ठाकुर होने के बाद भी 25% वोट वाला चमार समाज का व्यक्ति
प्रधान कैसे बन गया, उसी
परिपेक्ष्य मे 6 मई
को महाराणा प्रताप जयंती के अवसर पर गाँव में दंगा हुआ, जिसमे नंगी तलवारे लेकर दलितों की
बस्तियो में इतना आतंक मचाया गया की अगर दलित खेत में नही भागते तो जान माल की
हानि काफी होती. इसमें सबसे महत्वपूर्ण यह है कि गाँव का प्रधान शिवकुमार को इस
झगड़े का अंदेशा पहले से ही था इसलिए उसने लगातार सुबह से प्रशासन को फोन कर करके
सुचना दी थी जिससे की अप्रिय घटना रोकी जा सके.
2. इसके
बाद शब्बीरपुर का मामला राष्ट्रिय स्तर से लेकर अंतराष्ट्रीय स्तर तक पहुच गया, सरकार व प्रशासन काफी दवाब में आ
गया. इसके विरोध में सहारनपुर में दलित संगठनो का विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया.
इन्ही में से सामाजिक स्तर पर अच्छा कार्य कर रही "भीम आर्मी" ने रविदास
छात्रावास में आन्दोलन का आयोजन किया, इससे पहले भी कुछ महीने पहले सडक
दुधली में हुई घटना के विरोध में रविदास छात्रावास में आयोजन हुआ था जो की
शांतिपूर्वक निपट गया था. इसलिए फिर से शब्बीरपुर की घटना के विरोध में रविदास
छात्रावास में आयोजन हुआ.
3. लेकिन
प्रशासन ने उसकी इजाजत नही दी. गाँव से युवा शहर आ चूका था, जब वापस जाने के लिए बस अड्डे पर
आया तो भीड़ हो गयी, पास
ही गांधीपार्क मे भी काफी लोग इकट्ठा हो गये, ऐसे में प्रशासन को समझदारी
दिखानी चाहिए थी, लेकिन
प्रशासन ने लाठीचार्ज कर दिया, शब्बीरपुर की घटना से युवा आक्रोश
में था, उपर
से लाठीचार्ज हो गया, इससे
कुछ ने सडक पर पड़े पत्थर फैंकने शुरू कर दिए, पुलिस ने भरपूर लाठीचार्ज किए, बल्कि फायरिंग का ऑर्डर तक दे
दिया गया लेकिन पुलिस के सिपहिओ ने मानवता दिखाई और फायरिंग नही करी. इसके बाद
व्हाटस-अप पर थोड़ी सी अफवाह फैली और सहारनपुर से बाहर के इलाके में दलितों ने
मामूली सा प्रदर्शन किया. लेकिन किसी ने एक बस में आग लगा दी, यह आजतक पता नही चला कि मौके का
लाभ कौन ले गया. वैसे प्रशासन ने बाद मे काफी समझदारी से काम लेकर स्तिथि को
सम्भाला.
4. अब
खेल यहाँ से शुरू होता है. 9 मई की घटना एक मामूली सी घटना थी.
देश के किसी न किसी कौने में यह होता ही रहता है. लेकिन इस घटना का यूज सरकार, प्रशासन, ने मिडिया के साथ मिलकर शब्बीरपुर
की घटना को दबाने के लिए करा, क्योकि अंतराष्ट्रीय स्तर तक पर
शब्बीरपुर की घटना की निंदा हो रही थी. 9 मई की घटना में चन्द्रशेखर रावण
कंही भी नही था, बल्कि
वो तो शब्बीरपुर भी नही गया, लेकिन भाजपा ने मिडिया के माध्यम
से पुरे देश में ऐसा प्रचार कर दिया कि सहारनपुर में अराजकता फ़ैल गयी है, जबकि मेरे घर से घटनास्थल गाँधी
पार्क आधा किलोमीटर दूर है, मैं उस दिन उस तरफ से तीन बार
गुजरा लेकिन शाम को कुछ भी नही दिखा, सभी कुछ रोजाना की तरह था.
सहारनपुर वालो को भी अगले दिन के अखबार से पता लगा की कुछ पथराव हुआ था.
5. लेकिन
भाजपा अपने खेल को खेल चुकी थी. उसकी यह इच्छा की शब्बीरपुर की घटना को दबा दी
जाये, पूरी
हो रही थी. प्रशासन ने भी 40 के आसपास युवक को पकडकर अंदर कर दिया गया, चन्द्रशेखर जिसका कोई मतलब नही था, उसे जबरदस्ती फेमस कर दिया, और बाद में बंद करके रासुका लगा
दी. जबकि उसकी गिरफ्तारी ही गलत थी क्योकि सहारनपुर की 9 मई की घटना मामूली सी थी. जबकि
चन्द्रशेखर ने स्वय प्रमाण दिया है कि वो एसपी के साथ घूम-घूम कर शांति के लिए कह
रहा था. लेकिन इन सभी के बीच वो गाँव का प्रधान शिवकुमार को भी पकडकर अंदर करके
रासुका लगा दी जो कि सुबह से ही प्रशासन को फोन कर रहा था. 23 मई को बसपा प्रमुख बहन मायावती जी
वास्तविक घटना स्थल शब्बीरपुर गयी, गाँव वालो से मिली, आर्थिक सहायता दी. लेकिन इस रैली
से लौट रहे चिलकाना के पास के एक नौजवान को मार दिया गया.
6. इसके
बाद एक नई कहानी शुरू हो गयी. शब्बीरपुर की घटना को कोई याद नही कर रहा था, न ही शब्बीरपुर के हीरो शिवकुमार
व सोनू को याद कर रहा था, 23 मई को जिस दलित युवक को मारा गया, उसे कोई याद नही कर रहा था, आज तक कोई उसकी चर्चा भी नही करता
है, इसकी
जगह मिडिया के माध्यम से चन्द्रशेखर रावण को फेमस किया जाने लगा, जिससे कि शब्बीरपुर की घटना को
बिलकुल ही दबाया जा सके, जबकि
उसका शब्बीरपुर की घटना से कोई लेना-देना नही था, चंदे का आगमन हुआ. चंदा देखकर नई
दिल्ली के काफी कवि से लेकर सामाजिक सन्गठन सक्रिय हो गये. किस किसने चंदे का मजा
लिया यह आजतक पता नही लगा. जो जेल गये उनमे से कई लोगों ने बल्कि जितनों से मैंने बात
की उन सभी ने अपने अपने खर्चे पर वकील किये और जमानत ली.
7. इसके
बाद एंट्री होती है कोंग्रेस की, और स्थानीय नेता इमरान मसूद की.
उसने भीम आर्मी का सपोर्ट करना शुरू कर दिया, और वास्तव में वो साथ भी खड़े हुए, काफी सहायत भी करी थी. लेकिन उनका
भी व्यक्तिगत लाभ था, मेयर
के चुनाव होने वाले थे जिसमे दलितों का 80 हजार से 1 लाख वोट पर नजर थी साथी ही लोकसभा
में दलितों के वोट का भी लालच था, राजनीती में यह गलत भी नही है.
लेकिन भीम आर्मी के काफी युवको में नेतागिरी का चस्का चढ़ गया, ऐसे में नगर पालिका के चुनाव में
कोंगेस से टिकट की आस रखने लगे. बल्कि एक होर्डिंग की फोटो तो मेरे पास ऐसी आई
जिसमे भीम आर्मी के एक बंदे ने सहारनपुर की रामपुर मनिहारन सीट से चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी, जिसकी
वजह से इमरान मसूद व भीम आर्मी में ठन गयी. इमरान मसूद का अख़बार में यह ब्यान तक
पढ़ा कि चन्द्रशेखर "मिडनाईट स्टार" न बने. उसके बाद दोनों का आपस में
सहयोग छुट गया.
8. इसके
बाद एक घटना होती है जिसने दलित समाज की काफी बेइज्जती करवाई. जिसमे भीम आर्मी के
जिलाध्यक्ष का भाई सचिन वालिया की मौत हो गयी. जिसमे आरोप लगाया गया कि ठाकुर समाज
के व्यक्तिओ ने गोली मारी है. इसी का प्रचार किया गया जिसकी वजह से देश में उबाल आ
गया, और
युवा के इसी जोश के कारण गाजियाबाद, मोदीनगर, के आसपास के 7 के लगभग युवक जेल भेज दिए गये, जबकि यह युवक छात्र, खिलाडी, व अपने अपने फिल्ड में उपलब्धी
हासिल कर रहे थे. इससे ज्यादा गलत यह हुआ की जाँच के बाद यह मामला फर्जी निकला और
यह निकलकर आया कि एक कमरे में चार पांच बंदे बैठकर कट्टा चेक कर रहे थे, गलती से गोली चलने से मौत हुई, जिसमे जिससे गोली चली उसकी
गिरफ्तारी भी हुई. सबसे मुख्य यह रहा कि परिवार ने भी इसे स्वीकार कर लिया. लेकिन
इसका नुकसान यह हुआ कि कोई भी दलितों के मुंह पर कह देता है कि तुम तो खुद की गोली
से मरते हो और इल्जाम दुसरो पर लगा देते हो.
9. अब
अंत मे भाजपा जो की चारो तरफ से घिर चुकी है. उसे दिख गया है की सपा व बसपा गठबंधन
के कारण उसकी उत्तर प्रदेश में 1 या 2 सीट भी आ जाए तो बड़ी बात कही जाएगी, इसलिए उसने अब फिर से जिस प्रकार
शब्बीरपुर की घटना को दबाया था, उसी प्रकार से फिर से समाजवादी
पार्टी को नुक्सान पहुचाने के लिए शिवपाल यादव को आगे कर दिया, और दूसरी तरफ चंद्रशेखर जो कि 1 नवम्बर को वैसे भी छुट ही जाता
उसे दो महीने पहले इसलिए छोड़ दिया क्योकि उसे लग रहा है कि वो बाहर आकर महागठबंधन
के वोट खराब करेगा. नही तो अभी भी मुजफ्फरनगर जेल में "ओमकार" नाम का
समाज का युवक व मेरठ "योगेश वर्मा" रासुका में बंद है. ओमकार काफी
आर्थिक तंगी में है जिसकी मदद भी नही हो पा रही, लेकिन इन दोनों पर से सरकार ने
रासुका नही हटाई है. क्योकि इन दोनों से भाजपा को लाभ नही है.
10. लेकिन भाजपा यहीं पर गलती कर गयी क्योकि वो उत्तर प्रदेश के
दलितों को महाराष्ट्र के दलित समझ बैठी है जो कि इतने गुटों में बंट गयी कि बाबा
साहब का यह स्लोगन- "समाज के सुधार के लिए सत्ता प्राप्त करो" को ही
भूलकर "व्यक्तिगत लाभ के लिए सत्ता प्राप्त करो" को अपना रही है. उत्तर
प्रदेश का दलित समझदार के साथ साथ अपना इतिहास भी याद रखते हैं कि बसपा की सरकार
बनने से पूर्व डीएम का चपरासी भी दुत्कार देता था जबकि बसपा सरकार बनने के बाद वो
ही डीएम दलितों की बस्तियो में घूमता हुआ मिला है. उत्तर प्रदेश का दलित हर हाल
में 2019 में मोदी जी को आराम जरुर देगा.
वैसे चंद्रशेखर को इस समय समझदारी दिखानी चाहिए, उसका लक्ष्य 2019
में सिर्फ और सिर्फ
भाजपा हटाओ का होना चाहिए, और
सिर्फ कहना नही है बल्कि ध्यान से जमीनी स्तर पर इमानदारी से इस पर कार्य भी करना
चाहिए.
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