Thursday, March 7, 2019

आचार्य बुद्धघोष और पालि

पालि के साथ आचार्य बुद्धघोष का वही सम्बन्ध है जो मधु के साथ मिठास का। यह बुद्धघोष ही थे जिन्होंने पालि अट्ठ-कथाओं को सिंहल द्वीप से भारत लाया था। बुद्धघोष के समय भारत में पालि में निबद्ध बौद्ध धर्म इतना लोकप्रिय नहीं था। संस्कृत का प्रभाव बढ़ रहा था।  बौद्ध विद्वानों ने भी उसे अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में स्वीकार कर लिया था। प्रथम शताब्दी ईसवी के आचार्य अश्वघोष ने संस्कृत में अपनी काव्य-कृतियाँ लिखी। इसी प्रकार नागार्जुन, वसुबन्धु और दिङनाग जैसे महान दार्शनिकों ने संस्कृत में लिखा। गुप्त वंशीय राजाओं ने भी पालि में कोई अभिरुचि नहीं दिखायी और संस्कृत को ही संरक्षण दिया और प्रकार पालि और थेरवाद (स्थवीर वाद) दोनों धीरे-धीरे भारत में नगण्य अवस्था को प्राप्त हुए। परन्तु बोधगया के भिक्खु पांचवीं शताब्दी में भी, जब बुद्धघोष भिक्खु-संघ में प्रविष्ट हुए, पालि के प्रति वही अचल निष्ठां रखते थे(डा परमानंद सिंह: भूमिका: बौद्ध साहित्य में भारतीय समाज) ।

जिस विहार में बुद्धघोष की उपसम्पदा हुई, वही निवास करते हुए उन्होंने अपनी पहली पुस्तक 'ञाणोदय' लिखी. तदनंतर उन्होंने 'धम्मसंगणि' की अट्ठ-कथा 'अट्ठसालिनि' लिखी. इसके बाद जब वे परित्त-सुत्तों की अट्ठ कथा लिखने वाले थे तो उनके गुरु महास्थवीर रेवत ने उनसे कहा कि यहाँ सिंहल द्वीप से केवल मूल ति-पिटक ही लाया गया है. यहाँ न अट्ठ-कथाएँ हैं और न विभिन्न आचार्यों की परम्पराएं। परन्तु सिंहल द्वीप में महास्थवीर महेंद्र द्वारा मूलत: ले जाई गई और बाद में सिंहली भाषा में अनूदित अट्ठ-कथाएँ हैं. तुम वहां जाओ, उनका अध्ययन करो और फिर मागधी भाषा में उनका रूपान्तर करो, जिससे वे साधारण जनता के लिए हितकारी हों।

अपने गुरु से यह आदेश पाकर बुद्धघोष सिंहल द्वीप गए। इस समय वहां महानाम नामक राजा राज्य करता था।  महाविहार के महाप्रधान नामक भवन में रहकर आचार्य बुद्धघोष ने स्थवीर संघपाल से सम्पूर्ण सिंहली अट्ठ-कथाएँ और आचार्यों की परम्पराएं सुनी।  तब उन्होंने भिक्खु-संघ से अनुमति लेकर अनुराधपुर के ग्रन्थकार परिवेण में निवास करते हुए सिंहली अट्ठ-कथाओं के मागधी रूपान्तर किए(वही)।   

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