बुद्धघोष के समकाल में अर्थात ईसा की लगभग चौथी शताब्दी में ति-पिटक ग्रंथों के वाक्यों या अंशों को 'पालि' कहते थे। बुद्धघोष के ग्रंथों में ति-पिटक के वचनों का निर्देश 'अयमेत्थ पालि' (यह यहाँ पालि है) अथवा पालियं वुत्तं(पालि में कहा है) हुआ है। बुद्ध घोषाचार्य ने 'पालियं' शब्द से ति-पिटक के वचनों का और 'अट्ठकथायं' वचन से उस समय सिंहली भाषा में प्रचलित अट्ठ-कथाओं के वाक्यों का उल्लेख किया है। ( धर्मानंद कोसंबी: भगवान बुद्ध जीवन और दर्शन, पृ 17-18 )।
अट्ठ-कथा के मानी है, अर्थ सहित कथा। सिंहल द्वीप में यह परिपाटी थी कि पहले ति-पिटक' के वाक्यों का अर्थ बताया जाता था और जहाँ आवश्यकता होती, वहां कथा दे दी जाती थी। आगे चलाकर ये अट्ठ-कथाएँ लिख ली गई. परन्तु बहुत से पुनरुक्ति दोष होने के कारण वे सिंहल द्वीप के बाहर के लोगों के लिए विशेष उपयोगी नहीं हो सकती थी। अत: बुद्धघोषाचार्य ने उन में से प्रमुख अट्टह कथाओं का संक्षिप्त रूपांतर ति-पिटक की भाषा में किया। वह इतना अच्छा हो गया कि उसका सम्मान भी ति-पिटक ग्रंथों के समान होने लगा। अत: इन अट्ठ-कथाओं को भी पालि ही कहा जाने लगा(धर्मानंद कोसंबी : भगवान बुद्ध जीवन और दर्शन, पृ 18 )।
विशुध्दिमग्ग की भूमिका में राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं- बुध्दघोष ने अपनी इन अट्ठकथाओं में चार बातों का क्रम विशेष रूप उसे अपनाया- 1. सूत्र 2. सूत्रानुलोम, आचार्यवाद 4. अपना मत। जो बातें सूत्रों में आई हुई थी, सूत्र के अनुसार हो सकती थी, उस विषय में आचार्यों का जो कुछ वाद-विवाद हुआ था तथा जो अपनी राय होती, सबको दिखाते हुए पूर्ण निश्चय के साथ अट्ठकथाओं का संपादन किया।
यह कहना कि बुध्दघोस ने सिंहली अट्ठकथाओं का मात्र अनुवाद किया था, सही नहीं है। राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं- बुध्दघोस ने आचार्यवाद के साथ-साथ मिलिन्द पञ्ह(ईसा पूर्व पहली सदी ) से भी काफी सहायता ली है। जहां-जहां आवश्यकता जान पड़ी, वहां-वहां मिलिन्द पञ्ह का उध्दहरण देकर अपने कथन की पुष्टि की है। चौथी-पांचवी सदी में लिखे महावंश से भी ऐतिहासिक बातों की पुष्टि के लिए उध्दहरण देकर बुध्दघोस ने ऐतिहासिक सत्य की मर्यादा कायम रखी है। बुध्दघोस को सिंहली अट्ठकथाओं की जो बातें सूत्राकूल जान नहीं पड़ी, उन्होंने उनका सर्वथा त्याग कर दिया है(वही)।
निस्संदेह, सिंहली भासा के स्थान पर पालि भासा को पुनः प्रतिस्ठापित करने का श्रेय आचार्य बुद्धघोस को जाता है। विद्वानों की धारणा हैं कि यदि आचार्य बुद्धघोस की अट्ठकथाएं नहीं होती तो बुद्ध के सिद्धांत और दर्शन की बहुत-सी बातें अज्ञात ही रह जाती(भूमिका: विसुद्धि मग्ग भाग- 1 )।
अट्ठ-कथा के मानी है, अर्थ सहित कथा। सिंहल द्वीप में यह परिपाटी थी कि पहले ति-पिटक' के वाक्यों का अर्थ बताया जाता था और जहाँ आवश्यकता होती, वहां कथा दे दी जाती थी। आगे चलाकर ये अट्ठ-कथाएँ लिख ली गई. परन्तु बहुत से पुनरुक्ति दोष होने के कारण वे सिंहल द्वीप के बाहर के लोगों के लिए विशेष उपयोगी नहीं हो सकती थी। अत: बुद्धघोषाचार्य ने उन में से प्रमुख अट्टह कथाओं का संक्षिप्त रूपांतर ति-पिटक की भाषा में किया। वह इतना अच्छा हो गया कि उसका सम्मान भी ति-पिटक ग्रंथों के समान होने लगा। अत: इन अट्ठ-कथाओं को भी पालि ही कहा जाने लगा(धर्मानंद कोसंबी : भगवान बुद्ध जीवन और दर्शन, पृ 18 )।
विशुध्दिमग्ग की भूमिका में राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं- बुध्दघोष ने अपनी इन अट्ठकथाओं में चार बातों का क्रम विशेष रूप उसे अपनाया- 1. सूत्र 2. सूत्रानुलोम, आचार्यवाद 4. अपना मत। जो बातें सूत्रों में आई हुई थी, सूत्र के अनुसार हो सकती थी, उस विषय में आचार्यों का जो कुछ वाद-विवाद हुआ था तथा जो अपनी राय होती, सबको दिखाते हुए पूर्ण निश्चय के साथ अट्ठकथाओं का संपादन किया।
यह कहना कि बुध्दघोस ने सिंहली अट्ठकथाओं का मात्र अनुवाद किया था, सही नहीं है। राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं- बुध्दघोस ने आचार्यवाद के साथ-साथ मिलिन्द पञ्ह(ईसा पूर्व पहली सदी ) से भी काफी सहायता ली है। जहां-जहां आवश्यकता जान पड़ी, वहां-वहां मिलिन्द पञ्ह का उध्दहरण देकर अपने कथन की पुष्टि की है। चौथी-पांचवी सदी में लिखे महावंश से भी ऐतिहासिक बातों की पुष्टि के लिए उध्दहरण देकर बुध्दघोस ने ऐतिहासिक सत्य की मर्यादा कायम रखी है। बुध्दघोस को सिंहली अट्ठकथाओं की जो बातें सूत्राकूल जान नहीं पड़ी, उन्होंने उनका सर्वथा त्याग कर दिया है(वही)।
निस्संदेह, सिंहली भासा के स्थान पर पालि भासा को पुनः प्रतिस्ठापित करने का श्रेय आचार्य बुद्धघोस को जाता है। विद्वानों की धारणा हैं कि यदि आचार्य बुद्धघोस की अट्ठकथाएं नहीं होती तो बुद्ध के सिद्धांत और दर्शन की बहुत-सी बातें अज्ञात ही रह जाती(भूमिका: विसुद्धि मग्ग भाग- 1 )।
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