निर्वाण
भगवान बुद्ध ने निर्वाण का जो अर्थ किया है, वह उससे सर्वथा भिन्न है जो उनके पूर्वजों ने किया है। बुद्ध के निर्वाण का उद्देश्य हैं, प्राणी का सुख। संसार में रहते प्राणी का सुख। इसका मूलाधार राग-द्वेष-मोहाग्नि को शांत और संयमित करना है।
सामान्य तौर पर समझा जाता है कि अभाव आदमी को दुक्खी बनाता है। लेकिन हमेशा यही बात ठीक नहीं होती। आदमी बाहुल्य के बीच में रहता हुआ भी दुक्खी रहता है। दुक्ख लोभ का परिणाम है और लोभ दोनों को होता है। जिनके पास है, उन्हें भी और जिनके पास नहीं है, उन्हें भी। किन्तु यदि लोभ, द्वेष और मोह का मूलोच्छेद हो जाए तो आदमी न अपने दुक्खों से दुक्खी रहेगा और न दूसरों के दुक्खों से दुक्खी रहेगा।
बुद्ध ने कहा- भिक्खुओ, निर्वाण इसी जीवन में प्राप्त है, भविष्य जीवन में नहीं। अच्छा लगने वाला है, आकर्षक है। बुद्धिमान सावक इसे हस्तगत कर सकता है।
निर्वाण के बारे में पूछे जाने पर सारिपुत्र ने कहा- भिक्खुओ, लोभ बुरा है, द्वेष बुरा है। इस लोभ और द्वेष से मुक्ति पाने का साधन अष्टांगिक मार्ग है। निर्वाण की और ले जाता है। निर्वाण, आर्य अष्टांगिक मार्ग के अलावा कुछ नहीं है।
शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से निर्वाण का अर्थ है, बुझ जाना। कुछ लोग निर्वाण का अर्थ मानव प्रवृतियों के बुझ जाने से लगाते हैं। यह बिलकुल ही गलत अर्थ है। बुद्ध ने कई शब्दों को गढ़ा और कई परम्परागत शब्दों को नए तरीके से परिभाषित किया। दरअसल, लोग 'परिनिर्वाण' और 'निर्वाण' में भेद करना भूल जाते हैं।
उदान के अनुसार, जब शरीर बिखर जाता है, तमाम संज्ञाएँ रुक जाती हैं, तमाम वेदनाओं का नाश हो जाता है, जब सभी प्रकार की प्रक्रियाएं बंद हो जाती है और चेतना एकदम जाती रहती है, तब 'परिनिर्वाण' होता है। जबकि 'निर्वाण' का मतलब है, अपनी प्रवृतियों पर इतना काबू रखना कि आदमी धर्म के मार्ग पर चले सके।
एक बार राध स्थवीर तथागत के पास आए। आकर तथागत को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। इस प्रकार बैठे हुए स्थवीर ने तथागत से निवेदन किया- "भगवान निर्वाण किसलिए ?"
"निर्वाण का मतलब है- राग- द्वेष से मुक्ति।"
"लेकिन भगवान ! निर्वाण का उद्देश्य क्या है ?"
"राध, श्रेष्ठ जीवन ही निर्वाण का उद्देश्य है। -तथागत ने राध स्थवीर को संतुष्ट कर संतृप्त दिया।
(डॉ बी आर अम्बेडकर: भ. बुद्ध और उनका धम्म : खंड-3 भाग -3 )।
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स्रोत- (1). राध संयुत्त (22) : संयुक्त निकाय 43-3-6 : महावग्ग 1-3 (2 ) अंगुत्तर निकाय 3-52 (3 ) धम्म दायाद सुत्तंत 1-1-3 : मज्झिम निकाय
भगवान बुद्ध ने निर्वाण का जो अर्थ किया है, वह उससे सर्वथा भिन्न है जो उनके पूर्वजों ने किया है। बुद्ध के निर्वाण का उद्देश्य हैं, प्राणी का सुख। संसार में रहते प्राणी का सुख। इसका मूलाधार राग-द्वेष-मोहाग्नि को शांत और संयमित करना है।
सामान्य तौर पर समझा जाता है कि अभाव आदमी को दुक्खी बनाता है। लेकिन हमेशा यही बात ठीक नहीं होती। आदमी बाहुल्य के बीच में रहता हुआ भी दुक्खी रहता है। दुक्ख लोभ का परिणाम है और लोभ दोनों को होता है। जिनके पास है, उन्हें भी और जिनके पास नहीं है, उन्हें भी। किन्तु यदि लोभ, द्वेष और मोह का मूलोच्छेद हो जाए तो आदमी न अपने दुक्खों से दुक्खी रहेगा और न दूसरों के दुक्खों से दुक्खी रहेगा।
बुद्ध ने कहा- भिक्खुओ, निर्वाण इसी जीवन में प्राप्त है, भविष्य जीवन में नहीं। अच्छा लगने वाला है, आकर्षक है। बुद्धिमान सावक इसे हस्तगत कर सकता है।
निर्वाण के बारे में पूछे जाने पर सारिपुत्र ने कहा- भिक्खुओ, लोभ बुरा है, द्वेष बुरा है। इस लोभ और द्वेष से मुक्ति पाने का साधन अष्टांगिक मार्ग है। निर्वाण की और ले जाता है। निर्वाण, आर्य अष्टांगिक मार्ग के अलावा कुछ नहीं है।
शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से निर्वाण का अर्थ है, बुझ जाना। कुछ लोग निर्वाण का अर्थ मानव प्रवृतियों के बुझ जाने से लगाते हैं। यह बिलकुल ही गलत अर्थ है। बुद्ध ने कई शब्दों को गढ़ा और कई परम्परागत शब्दों को नए तरीके से परिभाषित किया। दरअसल, लोग 'परिनिर्वाण' और 'निर्वाण' में भेद करना भूल जाते हैं।
उदान के अनुसार, जब शरीर बिखर जाता है, तमाम संज्ञाएँ रुक जाती हैं, तमाम वेदनाओं का नाश हो जाता है, जब सभी प्रकार की प्रक्रियाएं बंद हो जाती है और चेतना एकदम जाती रहती है, तब 'परिनिर्वाण' होता है। जबकि 'निर्वाण' का मतलब है, अपनी प्रवृतियों पर इतना काबू रखना कि आदमी धर्म के मार्ग पर चले सके।
एक बार राध स्थवीर तथागत के पास आए। आकर तथागत को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। इस प्रकार बैठे हुए स्थवीर ने तथागत से निवेदन किया- "भगवान निर्वाण किसलिए ?"
"निर्वाण का मतलब है- राग- द्वेष से मुक्ति।"
"लेकिन भगवान ! निर्वाण का उद्देश्य क्या है ?"
"राध, श्रेष्ठ जीवन ही निर्वाण का उद्देश्य है। -तथागत ने राध स्थवीर को संतुष्ट कर संतृप्त दिया।
(डॉ बी आर अम्बेडकर: भ. बुद्ध और उनका धम्म : खंड-3 भाग -3 )।
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स्रोत- (1). राध संयुत्त (22) : संयुक्त निकाय 43-3-6 : महावग्ग 1-3 (2 ) अंगुत्तर निकाय 3-52 (3 ) धम्म दायाद सुत्तंत 1-1-3 : मज्झिम निकाय
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