हमारे कुछ लोग बहन मायावती का विरोध करते हैं. दलित-विरोधी ताकतें विरोध करती हैं तो समझ आता हैं किन्तु दलित आन्दोलनकारी नेता जब बहनजी का विरोध करते हैं, तो समझ के बाहर हो जाता है. हो सकता है, बहनजी में कमियां हो. और हैं भी, यह हमने कई मौकों पर देखा है. कमियों की ओर बहनजी का ध्यान आकृषित किया जाना चाहिए. हो सकता है, जिस एंगल से हमें उनका कोई निर्णय/कृत्य गलत/दोषपूर्ण लगता हो, दूसरे कोण से, जिससे हम अनभिज्ञ हैं, गलत न हो. दूसरे, कमियां तो मा. कांसीराम साहब और बाबासाहब अम्बेडकर में भी लोग निकाला करते थे.
हमें कम-से-कम बीजेपी के सख्त तेवरों को देखते हुए बहनजी के विरोध में कुछ कहने से बचना चाहिए. आप चाहे तो बीएसपी के अंतर्विरोधों को उजागर कर सकते हैं जैसे हिंदूवादी संगठन; जैसे शिवसेना आदि बीजेपी का करते हैं. बहनजी का विरोध दलित-अस्मिता का विरोध है. निस्संदेह, बहनजी का विरोध कर आप दलित-अस्मिता को कम ही कर रहे होते हैं. हम आपस में जो भी लड़ते रहे, और यह मुर्दा न होने की निशानी भी है, किन्तु दुश्मन के पास यह सन्देश जाना चाहिए कि दलित अस्मिता के प्रश्न पर, हम एक हैं. बहनजी बेशक, दलित अस्मिता की प्रतिक है. बाबासाहब में भी उस समय के हमारे लोग कमियां गिनाते थे. ये लीडर कुछ कांग्रेस द्वारा प्रायोजित होते थे और कुछ अपनी नाकामयाबी में कुंठित. बहनजी ने चाहे लखनऊ हो या नोएडा, दलित अस्मिता का जो खम्बा गाडा है, क्या इसे कोई हिला सकता है ? क्या उसकी कोई बराबरी कर सकता है ?
हमें आपस में लड़ने से बचना चाहिए. अपनी पहचान बहनजी के राजनीतिक कद की कीमत पर नहीं होना चाहिए. अगर एसपी से गठबंधन कर बहनजी अपने जख्म और घावों को नजर-अंदाज कर सकती हैं तो हमें अपने जख्मों का क्यों प्रदर्शन क्यों करना चाहिए ? अपनी जांघ उघाड़ कर हम दूसरों के लिए हंसी का पात्र ही बनते हैं !
हमें कम-से-कम बीजेपी के सख्त तेवरों को देखते हुए बहनजी के विरोध में कुछ कहने से बचना चाहिए. आप चाहे तो बीएसपी के अंतर्विरोधों को उजागर कर सकते हैं जैसे हिंदूवादी संगठन; जैसे शिवसेना आदि बीजेपी का करते हैं. बहनजी का विरोध दलित-अस्मिता का विरोध है. निस्संदेह, बहनजी का विरोध कर आप दलित-अस्मिता को कम ही कर रहे होते हैं. हम आपस में जो भी लड़ते रहे, और यह मुर्दा न होने की निशानी भी है, किन्तु दुश्मन के पास यह सन्देश जाना चाहिए कि दलित अस्मिता के प्रश्न पर, हम एक हैं. बहनजी बेशक, दलित अस्मिता की प्रतिक है. बाबासाहब में भी उस समय के हमारे लोग कमियां गिनाते थे. ये लीडर कुछ कांग्रेस द्वारा प्रायोजित होते थे और कुछ अपनी नाकामयाबी में कुंठित. बहनजी ने चाहे लखनऊ हो या नोएडा, दलित अस्मिता का जो खम्बा गाडा है, क्या इसे कोई हिला सकता है ? क्या उसकी कोई बराबरी कर सकता है ?
हमें आपस में लड़ने से बचना चाहिए. अपनी पहचान बहनजी के राजनीतिक कद की कीमत पर नहीं होना चाहिए. अगर एसपी से गठबंधन कर बहनजी अपने जख्म और घावों को नजर-अंदाज कर सकती हैं तो हमें अपने जख्मों का क्यों प्रदर्शन क्यों करना चाहिए ? अपनी जांघ उघाड़ कर हम दूसरों के लिए हंसी का पात्र ही बनते हैं !
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