बुद्ध लगातार 45 वर्ष तक चारिका करते रहे एवं जगह-जगह जाकर उपदेश देते रहे। उनके उपदेश देने का तरीका अभिनव था। वे सीधी-सादी बात करते थे। जहां विषय गंभीर होता था, उसे विस्तृत रूप से समझाते थे कि श्रोता उनकी कही बात को ठीक से समझ लें। उनकी शिक्षाओं में कोई गोपनीयता नहीं थी। भाषा का वाग्जाल या पांण्डित्य-प्रदर्शन नहीं होते हुए भी उनकी बोली में वह रहस्य छुपा था, जो बरबस लोगों को आकर्षित किए रखता था।
जैसे कि प्रो. पी. नरसू ने लिखा है कि बुद्ध का प्रवचन का तरीका तत्कालीन आर्यावर्त के ब्राह्मणों के तरीके से बिलकुल अलग था। ब्राह्मणों की तरह संक्षिप्त रूप से अपने विचार प्रस्तुत न करके वे अपनी शिक्षा, उपदेशों के रूप में देते थे। वे कुछ ही लोगों की बजाय श्रोताओं के विशाल समूह को सम्बोधित करते थे। वे इस तरह बोलते थे कि सभी की समझ में आ जाए। वे अपनी बात को बार-बार दोहराते थे। वे स्वयं को अपने श्रोताओं की क्षमता के अनुसार ढाल लेते थे। पहले वह दान-शीलता, शील के दाायित्वों, भावी सुख के विषय में, खतरे, अभिमान और वासनाओं के, आस्रवों के विषय में और वासना के त्याग के परिणामों या उनके फल के विषय में बोलते थे। जब वह देखते कि उनके श्रोता का मन तैयार, पूर्वाग्रह-मुक्त, ग्रहण-शील, सत्य को समझ की राह में आने वाली बाधाओं से मुक्त, आनन्दित और विश्वासी हो गया है, तब वे दुक्ख, दुक्ख का कारण, दुक्ख का निरोध और मार्ग का उपदेश देते थे। आमतौर पर वे उपमाओं और दृष्टांतों, आख्यानों, ऐतिहासिक किस्सों और प्रसंगों, नीति-वचनों और लोक-कथाओं का सहारा लेते थे। जब वे कोई नैतिक उपदेश देना चाहते अथवा किसी की भर्त्सना करना चाहते थे तो वे कोई किस्सा अथवा किसी पूर्व-जन्म की कथा सुनाते थे और इन कथाओं के पात्रों को अपने स्वयं के और अन्य संबंधित व्यक्तियों के पूर्व-जन्मों से सम्बन्धित बताकर प्रस्तुत करते थे। इस प्रकार के किस्सों को ‘जातक कथाएँ’ कहा जाता है(भगवान बुद्ध जीवन और दर्शनः पृ. 47-48 )।
कालांतर में पालि ति-पिटक ग्रंथों के साथ इन जातक कथाओं पर अट्ठ-कथाएँ और इन अट्ठ-कथाओं पर अट्ठ-कथाएँ लिख कर इन मिथकों को 'बुद्ध वचन' कह कर प्रचारित किया गया. स्पष्ट है, इन जातक कथाओं में प्रसंग-वश आए पुनर्जन्म, स्वर्ग, नरक, देवी, देवता आदि मिथकों को 'बुद्धवचन' कहना सरासर गलत और भ्रामक है।
जैसे कि प्रो. पी. नरसू ने लिखा है कि बुद्ध का प्रवचन का तरीका तत्कालीन आर्यावर्त के ब्राह्मणों के तरीके से बिलकुल अलग था। ब्राह्मणों की तरह संक्षिप्त रूप से अपने विचार प्रस्तुत न करके वे अपनी शिक्षा, उपदेशों के रूप में देते थे। वे कुछ ही लोगों की बजाय श्रोताओं के विशाल समूह को सम्बोधित करते थे। वे इस तरह बोलते थे कि सभी की समझ में आ जाए। वे अपनी बात को बार-बार दोहराते थे। वे स्वयं को अपने श्रोताओं की क्षमता के अनुसार ढाल लेते थे। पहले वह दान-शीलता, शील के दाायित्वों, भावी सुख के विषय में, खतरे, अभिमान और वासनाओं के, आस्रवों के विषय में और वासना के त्याग के परिणामों या उनके फल के विषय में बोलते थे। जब वह देखते कि उनके श्रोता का मन तैयार, पूर्वाग्रह-मुक्त, ग्रहण-शील, सत्य को समझ की राह में आने वाली बाधाओं से मुक्त, आनन्दित और विश्वासी हो गया है, तब वे दुक्ख, दुक्ख का कारण, दुक्ख का निरोध और मार्ग का उपदेश देते थे। आमतौर पर वे उपमाओं और दृष्टांतों, आख्यानों, ऐतिहासिक किस्सों और प्रसंगों, नीति-वचनों और लोक-कथाओं का सहारा लेते थे। जब वे कोई नैतिक उपदेश देना चाहते अथवा किसी की भर्त्सना करना चाहते थे तो वे कोई किस्सा अथवा किसी पूर्व-जन्म की कथा सुनाते थे और इन कथाओं के पात्रों को अपने स्वयं के और अन्य संबंधित व्यक्तियों के पूर्व-जन्मों से सम्बन्धित बताकर प्रस्तुत करते थे। इस प्रकार के किस्सों को ‘जातक कथाएँ’ कहा जाता है(भगवान बुद्ध जीवन और दर्शनः पृ. 47-48 )।
कालांतर में पालि ति-पिटक ग्रंथों के साथ इन जातक कथाओं पर अट्ठ-कथाएँ और इन अट्ठ-कथाओं पर अट्ठ-कथाएँ लिख कर इन मिथकों को 'बुद्ध वचन' कह कर प्रचारित किया गया. स्पष्ट है, इन जातक कथाओं में प्रसंग-वश आए पुनर्जन्म, स्वर्ग, नरक, देवी, देवता आदि मिथकों को 'बुद्धवचन' कहना सरासर गलत और भ्रामक है।
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