(9 फर से 24 फर 2019)
बुद्धिस्ट सोसयाटी ऑफ़ इंडिया के म प्र की शाखा के द्वारा नेपाल सहित भारत बुद्धिस्ट तीर्थ स्थानों का भ्रमण निसंदेह स्तुतीय और अभिनन्दनीय है. पिछले दिनों 9 फर से 24 फर 2019 की अवधि में इसी प्रकार के 15 दिवसीय पैकेज में हमें शरीक होने का मौका मिला जिसमें सारनाथ, बुद्धगया, राजगिर, नालंदा, वैशाली, कुशीनगर, काठमांडू, कपिलवस्तु, सावत्थी और लखनऊ सम्मिलित थे . दो लक्जरी बसों में करीब 90 यात्रियों के साथ कुक और रसोई का सारा सामान था. विश्राम के लिए होटल बुक थे.
संस्था के प्रांतीय अध्यक्ष अपनी आवश्यक टीम के साथ हमारे साथ ही थे. आरामदायक होटलों में रुकने के साथ हाथ का खाना, पानी और हवा के बदलने से होने वाली बीमारियों को दूर रख रहा था. प्रांतीय अध्यक्ष आयु चरणदास ढेंगरे जी निसंदेह बधाई के पात्र हैं जो हंसते मुस्कराते सह-यात्रियों की शिकायते दूर करने में लगे रहते हैं.
हर बुद्धिस्ट की हसरत होती है कि वह जीते जी उन तीर्थ-स्थानों में जा कर उस महामानव को नमन करें, जिसने संसार को प्रेम और करुणा का पाठ पढ़ा कर शांति का अमर सन्देश दिया. हम भंतेजी से सुनते हैं, पुस्तकों में पढ़ते हैं किन्तु मानसिक तृप्ति तभी होती है जब उन स्थानों में जा कर उन्हें करीब से देखते हैं जहाँ वह महामानव पैदा हुआ और जीवन के 45 वर्ष बिना किसी साधन के पैदल चलते हुए धम्म देशना की. इस धम्म-देशना में न उसने धर्म, सम्प्रदाय का ख़याल रखा और न जाति, वर्ण और लिंग का भेद किया .
आज, उन स्थानों पर मिटटी की कई परतें चढ़ी हुई हैं. खुदाई से प्राप्त उन भग्नावशेषों को देख कर जिन्हें बूरी तरह अंग-भंग किया गया है, बेहद कोफ़्त होती है. गुस्सा आता है, अपनी सभ्यता पर, अपनी संस्कृति पर जो ऐसा करने लोगों को प्रेरित करती है. चाहे संग्रहालय हो या स्तूप/चैत्य-भग्नावशेष,सिर, हाथ और नाक कटी मूर्तियाँ हमें चिढाती हैं, हमारे बुद्धिस्ट होने पर अंगुली उठाती है. अंग-भंग मूर्तियों के अवशेष उनके साथ हुई बर्बरता खुल कर बतलाते हैं.
कई बुद्धिस्ट तीर्थ-स्थान तो आज भी ब्राह्मण पंडों के अड्डे बने हुए हैं ? बुद्धिस्ट तीर्थ-स्थान और ब्राह्मण पण्डे ? आपको अचरज हो सकता है ! किन्तु यह सत्य है . हमारी नपुंसकता और ना-काबलियतों की निशानियाँ कदम-कदम पर हमें चिढाती हैं. 1956 के बाद काफी समय बीत चूका है किन्तु गावं और मोहल्लों में बाबासाहब की मूर्तियाँ और छोटे-छोटे बुद्ध विहार बनाने के अलावा हमने ज्यादा कुछ नहीं किया है. जो विरासत बाबासाहब छोड़ गए हैं, हम उसे संभालने में बूरी तरह असफल रहे हैं. हमारा नौकरी-पेशा वर्ग परिवार पालने में ही मस्त है. धर्म और कर्म की उसे सुध नहीं है. बुद्ध विहार न हम उन्हें ले जाते हैं और न वे आते हैं . भला धम्म तीर्थ-स्थानों की सुध उन्हें क्यों होने लगे ?
राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय धरोहर बने इन तीर्थ स्थानों में देसी और विदेशी पर्यटकों के सुविधा के लिए तैनात गाईड तो और भी बुद्धिज़्म को जमीदोज कर रहे हैं . नालंदा में मैंने एक गाइड को टोका. वह बुद्ध का जीवन चारित्र्य हिन्दू देवी-देवताओं की तर्ज पर बखान कर रहा था . मैंने पास खड़े सेक्युरिटी गार्ड को कहा कि हम इसकी शिकायत दर्ज कराना चाहते हैं . उसने मुझे आश्चर्य से देखा और मेन गेट की ओर इशारा करते हुए कहा- 'देख लीजिए, वहां शर्मा जी बैठे हैं' ?
बाबासाहब ने जो बुद्धिज़्म हमें दिया, इन तीर्थ स्थानों जा कर हम उसका अलग रूप देखते हैं. चाहे जापान के तीर्थ यात्री हों , बर्मा, चीन, कम्बोडिया, वियतनाम, लाओस, थाईलेंड, या पड़ोस तिब्बत, भूटान, सिक्किम, सिंहल द्वीप के; बुद्धिज़्म के महायानी परम्परा का रूप हमें देखने मिलता है. इन विदेशी पर्यटकों को जो बड़े अनुशासन और सलीके से धम्म-यात्रा सम्पादित करते हैं, उनका साथ पाकर जहाँ एक और सीना चौड़ा होता है वहीँ बुद्धिज़्म का यह रूप देख कर मन में अजीब-सी बेचैनी पैदा होती है. मन में प्रश्न घुमड़ते हैं कि फिर बुद्ध अलग कैसे ?
बुद्ध तीर्थ स्थानों में भ्रमण के लिए बिभिन्न एजेंसियों के कई पैकेज हैं, किन्तु प्रांतीय शाखा बुद्धिस्ट सोसायटी ऑफ़ इंडिया के इस पैकेज में मुम्बई से राष्ट्रीय सचिव बी एच गायकवाड़ गुरूजी का मार्ग दर्शन और विभिन्न बुद्धिस्ट तीर्थ-स्थानों से सम्बंधित जानकारी अन्यत्र दुर्लभ है. उनके प्रसुतिकरण का तरीका वाकई उन क्षणों को आपके सामने जीवंत करता है जो बुद्धकाल में घटित हुए थे. उनको सादर नमन.
पुन: आयु. चरणदास ढेंगरेजी के इस पावन-प्रयास की मैं प्रशंसा करता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि लोग इसका लाभ उठाएंगे
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