Saturday, October 3, 2020

कवि मलखान सिंह

 फ़ेसबुक आज महान कवि मलखान सिंह जी का जन्मदिन बता रहा है जो है भी। मलखान सिंह जी का जन्म दिनांक 30 सितम्बर 1948 को बसई काजी, अलीगढ़, उत्तर प्रदेश में हुआ था। बहुत विनम्र स्वभाव के संकोची और मिलनसार स्वभाव के धनी मलखान सिंह बेहद गंभीर कवि के रूप में हिंदी काव्य जगत में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करते हैं। वे कवि होने का दंभ नहीं पालते। वे लिखते हैं -“ ‘सुनो ब्राह्मण’ में संकलित कविताएँ पढ़ने के बाद यदि आपके भीतर कुछ कुलबुलाने लगे, उबलने लगे, घुमड़ने लगे, टूटने लगे, पुराना और नया जुड़ने लगे तो मैं अपने सृजन को सार्थक समझूंगा अन्यथा समय नष्ट करने के लिए आपसे क्षमा चाहूंगा।” ऐसी उदारता और ऐसा अकिंचन बोध भला किस रचनाकार में होता है। रचनाकार पाठक से ‘विमल बुद्धि’ की अपेक्षा रखते हैं। और बहुतेरे रचनाकार तो एक तरह की ठसक और धौंस ही दिखाते हैं। हालाँकि क्षमा माँगते हुए मलखान सिंह यह जानते हैं कि उन्हें अपनी रचना को दुरुस्त नहीं करना है।

‘सुनो ब्राह्मण’ की सोलह कविताएँ इक्कीसवीं सदी के उन्नीसवें बरस में भी बाली उम्र के बाग़ी तेवर लिए हुए दिखाई देती हैं। वे लिखते हैं -
“मेरी मॉं मैला कमाती थी
बाप बेगार करता था
और मैं मेहनताने में मिली जूठन को
इकट्ठा करता था, खाता था।
आज बदलाव इतना आया है कि
जोरू मैला कमाने गई है
बेटा स्कूल गया है और -
मैं कविता लिख रहा हूँ।”
सन 1996 में प्रकाशित इस काव्य संग्रह के रचयिता ने लगभग पचास वर्ष के हो रहे भारतीय लोकतंत्र को को देखा था। दलित ने शिक्षा प्राप्त करने के बाद जो बेबसी प्राप्त की थी, उसकी उद्दाम अभिव्यक्ति है यह कविता।
आदमी चाहे कुछ भी कर ले लेकिन उस की पहचान उसके बाहरी आवरण से ही है। सब किसी न किसी खॉंचे में ही स्वयं की पहचान निर्मित करना चाहते हैं, चाहे हम सबको एक मानने का प्रयास करते रहें। चाहे दक्षिणपंथी हों या वाम पंथी, एक बाहरी आवरण बहुत ज़रूरीहै। बाहरी आवरण चाहे कोई भी क्यों न हो, परंपरागत चली आ रही मान्यता से हम पीछा छुड़ाना नहीं चाहते। और जो कोई इन परम्पराओं को छोड़ना चाहता भी है तो लोग उसे घसीटता है उसी सनातनता में लेजाते हैं
“मैं दाएँ मुड़ता हूँ
बन्डी दाएँ मुड़ती है
मैं बाएँ मुड़ता हूँ
बन्डी बाएँ मुड़ती है
यहॉं तक कि खाते-पीते
उठते-बैठते और -
चिता में पसरने तक भी
यह सनातनी बन्डी
मेरा पीछा नहीं छोड़ती।”
इसलिए मल्खान सिंह ने अपने भविष्य को शिक्षा दी है कि सनातनता से दूर रहे। जिन्हें आस्थाओं का केंद्र बनाया गया है, वे उनसे झाड़ू बनाने को तैयार हैं। एक तरफ़ तुलसीदास के ब्राह्मण का बेटा मर जाता है और शम्बूक वध होता है तो मलखान सिंह जी का बेटा तुलसी के बिरवे की झाड़ू बनाने को कहता है। सनातनी परंपरा की कमर को तोड़ती हुई है यह कविता-
“हमारी बस्ती में जो
तुलसी का बिरवा है
उसे उखाड़
झाड़ू बनाने की बात
हमारा बेटा कहता है।
कहता है कि यह
वही बिरवा है
जो गैल- चलते हमारी
टोपियॉं उछालता है
और पशुवत् जीने को
बाध्य करता है।”
मलखान सिंह ने भगवान को भी संबोधित किया है अपनी कविता में। वे ये जानते हैं कि भगवान मौक़ा परस्त का निर्माण है। भगवान अपनी सुख सुविधाओं को बनाए रखने की ख़ूबसूरत कल्पना है। एक ऐसी कल्पना जिसका भय दिखाकर धुर्त बौद्धिक जन सामान्य जन को माध्यम बनाकर अपने भौतिक सुख सुविधाओं के लिए तमाम संसाधन विकसित कर सकते हैं। ना केवल शारीरिक रूप से दास कर्म करवाते अपितु भावात्मक तौर पर आज्ञाकारी बनाते हुए शोषण किया जाता है।
इसलिए मलखान सिंह ने ईश्वर को संबोधित किया और कहा कि तुम मेरे पक्ष में खड़े नहीं होंगे इसलिए मुझे ख़ुद को ताक़तवर बनाना होगा। मैं अपनी लड़ाई अपने दम पर ही लड़ सकूंगा। तुम तो उनके पक्षधर हो -
“धनुर्धर!
आज जान गए
ठीक ठीक जान गए हैं कि -
कल निकम्मों के साथ
होने वाली आख़िरी जंग में
तू हमारा सारथी नहीं होगा
और पूरा का पूरा जंग
हमें अपने ही बाज़ुओं से
लड़ना होगा।”
कोई भी समस्या क्यों है यदि इसका कारण पता चल जाए तो निदान संभव हो जाता है। सामाजिक तौर पर दलित, स्त्री क्यों परेशान हैं - मलखान सिंह समझ गए थे। उन्होंने तीव्र विरोध किया, प्रतिरोध किया और सुनो ब्राह्मण कविता में बड़ी ख़ूबसूरती से अभिव्यक्त किया।
“सुनो ब्राह्मण
हमारी दासता का सफ़र
तुम्हारे जन्म से शुरु होता है
और इसका अन्त भी
तुम्हारे अंत के साथ होगा।”
इसी कविता में वे वशिष्ठ और द्रोणाचार्य जैसे गुरुओं को कठघरे में खड़ा करते हैं। जैसी शिक्षा दी जाएगी, वैसा ही समाज निर्मित होगा। वर्तमान भारत को देखते हुए इस बात को स्वीकार करने में कहीं कोई द्वंद्व नहीं होना चाहिए। वर्तमान भारत की निर्मिति इसी शिक्षा व्यवस्था का परिणाम है। ‘सुनो ब्राह्मण’ शिक्षा व्यवस्था के प्रतिरोध में एक आक्रोश तो है ही, साथ ही, नई व्यवस्था निर्मित करने का अदम्य तार्किक उत्साह भी।
“सुनो वशिष्ठ!
द्रोणाचार्य तुम भी सुनो!
हम तुमसे घृणा करते हैं
तुम्हारे अतीत
तुम्हारी आस्थाओं पर थूकते हैं।”
आज मलखान सिंह जी का जन्म दिवस है और मैं उनके क्रान्तिकारी तेवर को, उनके साहस, सहज, सरल स्वभाव को, उनकी सदाशयता को, इन्हीं पंक्तियों के साथ याद कर रही हूँ।
हेमलता महिश्वर

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