संघ ही शास्ता
बुद्ध के महापरिनिर्वाण को अभी अधिक समय नहीं बीता था। इस समय आनन्द राजगृह में ही विहार कर रहे थे। प्रद्योत के भय से अजातसत्तु ने राजगृह की मरम्मत शुरू की थी और उस काम पर गोपक मोग्गलायन ब्राह्मण को नियुक्त किया था।
आयु. आनन्द पिण्डाचार के लिए निकले। परन्तु भिक्खाटन में अभी देरी थी, अतः वे गोपक मोग्गलान की ओर मुड़ गए। ब्राह्मण ने उसे आसन दिया और स्वयं उससे कम ऊंचे आसन पर बैठ कर पूछा-
‘‘क्या भगवान जैसा गुणवान भिक्खु और कोई है ?’’
‘‘नहीं है।’’ -आनन्द ने उत्तर दिया।
यह बात चल ही रही थी कि इतने में मगध देश का प्रधान-मंत्राी वस्सकार ब्राह्मण वहां आ गया और उसने आनन्द की बात सुनकर उससे पूछा-
‘‘क्या भगवान ने किसी ऐसे भिक्खु को नियुक्त किया है जो भगवान के अभाव में संघ का नेतृत्व करे ?’’
‘‘नहीं।’’ -आनन्द ने कहा।
‘‘तो क्या कोई भिक्खु है, जिसे संघ ने भगवान के स्थान पर चुन लिया है ?’’
‘‘नहीं।’’ -आनन्द ने कहा।
‘‘अर्थात आपके भिक्खु-संघ का कोई नेता नहीं है। तो फिर उस संघ में संगठन कैसे रहता है ?’’ -वस्सकार ने पूछा।
‘‘ऐसा नहीं समझना चाहिए कि हमारा कोई नेता नहीं है। भगवान ने विनय के नियम बना दिए हैं। हम जितने भिक्खु एक गांव में रहते हैं, वे सब एकत्र होकर उन नियमों को दूहराते हैं। जिससे दोष हुआ हो, वह अपना दोष प्रगट करता है और उसका प्रायश्चित करता है।’ - वस्सकार बाह्मण की शंका का भदन्त आनन्द ने समाधान किया(संदर्भ- गोपक मोग्गल्लान सुत्तः मज्झिम निकाय )।
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