" आरुग्गबोहिलाभं " - जैन मुनियों के अध्ययन - अध्यापन के लिए बीकानेर में स्थापित संस्था है.....
इस संस्था के सीईओ नितिश जैन ने यह चिट्ठी भेजी है.....
चूँकि जैन मुनि स्वयं अपने हाथों से लिखकर पत्र - व्यवहार नहीं करते हैं और न इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों का इस्तेमाल करते हैं, सो सीईओ ने आदरपूर्वक मुझसे पत्राचार किया है....
जैन मुनिवरों के मन में मेरी एक पुस्तक " भारत में नाग परिवार की भाषाएँ " पढ़कर कुछ जिज्ञासाएँ उठी हैं, अति संक्षेप में समाधान करता हूँ .....
संस्कृत एक है और प्राकृतें अनेक हैं.....
भारत में अनेक गण थे, जनपद थे, भौगोलिक क्षेत्र थे, नाना प्रकार के लोग थे....
इसीलिए प्राकृतें अनेक हैं, यहीं भाषा की स्वाभाविक गति है......
संस्कृत एक है, मनु और शतरूपा के सिद्धांतों का अनुगमन करते हुए भाषावैज्ञानिकों ने बता दिया कि संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है, जैसे मनु सभी मनुष्यों के जनक हैं, यह भाषा की अस्वाभाविक गति है......
इसीलिए मैंने कहा कि भारत की सभी संस्कृतेतर देशी भाषाएँ प्राकृतों के पुरखे और वंशज हैं.....
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