थेरीगाथा
थेरीगाथा की थेरियां जिन विषयों पर विमर्श करती हैं वे आज भी प्रासंगिक हैं। मातृत्व, संतानहीनता, वृद्धावस्था, उपेक्षा, तिरस्कार, आदि पर वे बड़े विस्तार से चर्चा करती थीं।भौतिकवाद को अस्वीकार करते हुए वे थेरी संघ के मैत्रीभाव और सहयोग से युक्त सरल, त्यागमय जीवन को अपनातीं थी। असमानता, शोषण और धर्मतंत्र के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने वाली उनकी कविताओं में वो ताप है वह आज भी समाज में महिलाओं की सम्मानजनक स्थिति स्थापित करने के लिए एक आदर्श उदाहरण है।
बुद्ध
के समय एक काव्य ग्रंथ ‘थेरीगाथा’ लिखा गया था। थेरी का अर्थ है
भिक्षुणी। थेरीगाथा अर्थात
भिक्षुणियों की गाथाएं। इन भिक्षुणियों को
थेरियां भी कहा गया। यह काव्य ग्रंथ बौद्ध
त्रिपटक साहित्य का हिस्सा माना जाता है। कुल 494
कविताओं से युक्त इस
रचना के निर्माण में 110 भिक्षुणियों का योगदान रहा।
बुद्ध के समय ये
कविताएं मगधी भाषा में प्रचलित थी। फिर उनका रूपांतरण पाली
भाषा में किया गया। विश्व की यह पहली रचना
है, जो
महिलाओं की कविताओं के संकलन के रूप में है। थेरीगाथा
से पहले भारतीय इतिहास में महिलाओं को अपनी व्यथा का वर्णन इतनी निर्भिकता और
खुलेपन के साथ प्रकट करते नहीं देखा गया। इसे नारी स्वतंत्रता का
मार्ग प्रशस्त करने वाले ग्रंथ के तौर पर देखा गया।
थेरीगाथा का सिलसिला
कायम रहता तो शायद आज भारत में महिलाओं की हैसियत कहीं बेहतर होती। जिस आत्मविश्वास के साथ
थेरियों ने पितृसत्तात्मक समाज में नारी पीड़ा का वर्णन किया वैसा प्राचीन विश्व
साहित्य में अन्यत्र नहीं मिलता। अपनी आपबीती बयान करते
हुए इन थेरियों में किसी प्रकार की लाचारी और पीड़ित होने का भाव नहीं था। यौन उत्पीडन पर बोलते
हुए किसी भी थेरी में अपराध का बोध नहीं था। अपनी गोपनीय से गोपनीय
बात को खुलकर कहने में उन्हें कोई हिचक न थी। अपने जीवन की
उत्कृष्टता के लिए जितने बड़े क्रांतिकारी आंदोलन का सुत्रपात इन थेरियों द्वारा
किया गया था वह मिसाल बना। इसके चलते सार्वजनिक
जीवन में महिलाओं के लिए अवसर बढ़े।
थेरियां किसी एक वर्ग, जाति या इलाके से नहीं थीं। वे तत्कालीन सभी वर्गों, जातियों और इलाकों का
प्रतिनिधित्व करती थीं। थेरी मैत्रिका का जन्म
बिहार के बहुत धनवान ब्राह्मण के घर में हुआ था। थेरी अर्द्धकाशी
वाराणसी के धनी सेठ की कन्या थी। थेरी विमला वैशाली की
वैश्या की कन्या थी। सामा और अपरासामा
कौशांबी के राजकुल से थीं। पद्मावती उज्जैन की
गणिका थी। थेरी पुण्णिका दासी की
पुत्री थी।
रानी यशोधरा और गौतमी
सहित शाक्य वंश की लगभग सभी स्त्रियां भिक्षुणी हो गई थी।
भिक्षुणी बनने के बाद सभी थेरियां समान होती थीं। कोई ऊंच-नीच नहीं।
भिक्षुणी बनने के बाद सभी थेरियां समान होती थीं। कोई ऊंच-नीच नहीं।
ऐसा
माहौल बुद्ध की पहल और प्ररेणा से बना। थेरीगाथा के जरिए बुद्ध
ने एक बड़ा क्रांतिकारी कदम उठाया था। उस समय महिलाओं को
समानता और सम्मानजनक स्थान दिलाने का एक ही रास्ता था और वह था उनका थेरी संघ में
प्रवेश। इन महिलाओं के थेरी संघ
में प्रवेश के अलग-अलग कारण थे, पर सभी किसी न किसी कारण दुखी
थीं। तथागत के विचार पिड़ित
स्त्रियों के जीवन में कितनी उम्मीदें जगाते हैं, इसका पता इन थेरियों की कविताओं
से लगता है। अनेक अत्याचार सहने के
बाद भी इनके जीवन में कहीं भी निराशा नहीं थी।
थेरी संघ में धनी और
राजघराने की महिलाएं भी थीं। उनकी अपनी अलग तरह की
समस्या थी। भोग-विलास को इन्होंने
सच्चा जीवन समझा था। उनकी अज्ञानता का लाभ
उठाकर पुरोहित वर्ग ने उन पर वर्चस्व स्थापित कर लिया था। बुद्ध के वचन सुनने के
बाद वे मिथ्या मान्यताओं और शोषण से बच गई।
थेरीगाथा की थेरियां जिन विषयों पर विमर्श करती हैं वे आज भी प्रासंगिक हैं। मातृत्व, संतानहीनता, वृद्धावस्था, उपेक्षा, तिरस्कार, आदि पर वे बड़े विस्तार से चर्चा करती थीं।भौतिकवाद को अस्वीकार करते हुए वे थेरी संघ के मैत्रीभाव और सहयोग से युक्त सरल, त्यागमय जीवन को अपनातीं थी। असमानता, शोषण और धर्मतंत्र के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने वाली उनकी कविताओं में वो ताप है वह आज भी समाज में महिलाओं की सम्मानजनक स्थिति स्थापित करने के लिए एक आदर्श उदाहरण है।
लेखक : उदय प्रकाश अरोड़ा, पुर्व ग्रीक चेयर प्रोफेसर, जेएनयू
response@jagran.com
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