Tuesday, August 6, 2019

Dr Ambedkar on Kashmir

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने 10 अक्टूबर 1951 में संसद में दिये अपने भाषण में कश्मीर मुद्दे पर अपने विचार रखे थे जो इस प्रकार थे -
No photo description available."पाकिस्तान के साथ हमारा झगड़ा हमारी विदेश नीति का हिस्सा है ,जिसको लेकर मैं गहरा असंतोष महसूस करता हूं। पाकिस्तान के साथ हमारे रिश्तों में खटास दो कारणों से है — एक है -कश्मीर और दूसरा है- पूर्वी बंगाल में हमारे लोगों के हालात।
मुझे लगता है कि हमें कश्मीर के बजाय पूर्वी बंगाल पर ज़्यादा ध्यान देना चाहिए ,जहां जैसा कि हमें अखबारों से पता चल रहा है, हमारे लोग असहनीय स्थिति में जी रहे हैं। उस पर ध्यान देने के बजाय हम अपना पूरा ज़ोर कश्मीर मुद्दे पर लगा रहे हैं।
उसमें भी मुझे लगता है कि हम एक अवास्तविक पहलू पर लड़ रहे हैं। हम अपना अधिकतम समय इस बात की चर्चा पर लगा रहे हैं कि कौन सही है और कौन ग़लत? मेरे विचार से असली मुद्दा यह नहीं है कि सही कौन है बल्कि यह कि सही क्या है?
और इसे यदि मूल सवाल के तौर पर लें तो मेरा विचार हमेशा से यही रहा है कि कश्मीर का विभाजन ही सही समाधान है। हिंदू और बौद्ध हिस्से भारत को दे दिए जाएं और मुस्लिम हिस्सा पाकिस्तान को ,जैसा कि हमने भारत के मामले में किया।
कश्मीर के मुस्लिम भाग से हमारा कोई लेनादेना नहीं है। यह कश्मीर के मुसलमानों और पाकिस्तान का मामला है। वे जैसा चाहें, वैसा तय करें। या यदि आप चाहें तो इसे तीन भागों में बांट दें; युद्धविराम क्षेत्र, घाटी और जम्मू-लद्दाख का इलाका और जनमतसंग्रह केवल घाटी में कराएं।
अभी जिस जनमत संग्रह का प्रस्ताव है, उसको लेकर मेरी यही आशंका है कि यह चूंकि पूरे इलाके में होने की बात है, तो इससे कश्मीर के हिंदू और बौद्ध अपनी इच्छा के विरुद्ध पाकिस्तान में रहने को बाध्य हो जाएंगे और हमें वैसी ही समस्याओं का सामना करना पड़ेगा ,जैसा कि हम आज पूर्वी बंगाल में देख पा रहे हैं।’
( डॉ आंबेडकर : राइटिंग्स एंड स्पीचेज , खंड- 14 ,भाग -2 पेज- 1322)
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आर्टिकल 370 और बाबासाहेब डॉ. भीम राव अम्बेडकर'
कश्मीर या पाकिस्तान के मामले मे बाबासाहेब की सोच जवाहरलाल नेहरू,
सरदार पटेल या कान्ग्रेस वैचारिकी से कुछ मामलों में अलग थी|
पाकिस्तान के बारे में उनकी बहुचर्चित किताब
‘थाट्स ऑन पाकिस्तान’
सर्वसुलभ है|
उसे पढ़कर उनकी पाकिस्तान के सम्बन्ध मे राय समझी जा सकती है|
कश्मीर मामले पर उस किताब मे भी टिप्पणियाँ हैं|
इसके अलावा नेहरू कैबिनेट से 27 सितम्बर, 1951 को दिए डॉ. अम्बेडकर के इस्तीफ़े मे दर्ज कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियों से भी कश्मीर पर उनके विचारों को समझा जा सकता है|
उनका इस्तीफ़ा दस पृष्ठों का है|
वह कोई मामूली त्यागपत्र नहीं है|
यह उस वक्त की भारतीय राजनीति और वैचारिकी को समझने का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बन चुका है|
नेहरू कैबिनेट से अपने इस्तीफ़े के लिए डॉ. अम्बेडकर ने कई प्रमुख कारण बताए|
इस्तीफ़े के तीसरे कारण मे उन्होंने नेहरू सरकार की विदेश नीति के कुछ ख़ास पहलुओं से असहमति जताई है|
इस क्रम में डॉ. अम्बेडकर ने जॉर्ज बर्नाड शा और बिस्मार्क को भी उद्धृत किया है|
वह बताते हैं,
"भारत इस वक्त कुल 350 करोड़ का राजस्व सालाना प्राप्त कर रहा है,
इसमें 180 करोड़ हम सेना पर ख़र्च कर रहे हैं|
यह बहुत बड़ा खर्च है और ऐसा उदाहरण शायद ही कहीं और मिलेगा|
सेना पर यह खर्च हमारी विदेश नीति के चलते है|
हमारे दोस्त देश नहीं हैं,
जिन पर हम किसी इमरजेन्सी मे भरोसा कर सकें|
क्या यह सही विदेश नीति है ?
पाकिस्तान से हमारा झगड़ा विदेश नीति की विफलता का नतीजा है,
जिससे मैं बुरी तरह क्षुब्ध रहा हूं|
दो वजहें हैं,
जिनके चलते हमारे पाकिस्तान से रिश्ते खराब हैं|
पहली वजह कश्मीर और दूसरी वजह है पूर्वी बंगाल का इलाका|"
डॉ. अम्बेडकर कश्मीर पर साफ़ शब्दों मे कहते हैं कि जम्मू और लद्दाख के इलाके को अगर भारत अपने साथ रखे और पूरे कश्मीर को पाकिस्तान को सौंपे या कश्मीरी जनता पर छोड़े कि वहाँ के लोग क्या करना चाहते हैं ?
यह पाकिस्तान और कश्मीर के मुसलमानो के बीच का मामला है|
वह यह भी कहते हैं कि जनमत-सँग्रह कराना है तो वह सिर्फ कश्मीर में कराया जाय !
उर्मिलेश
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|अनुच्छेद-Articles:_370 कश्मीर के सम्बन्ध||
कश्मीर के सम्बन्ध में जनमत का प्रश्न उपस्थित होने के कारण और संयुक्त राष्ट्र संघ ने सन 1948 में जनमत संग्रह का प्रस्ताव मंजूर करने से एक नई परिस्थिति निर्माण हूँई।
रिपोर्ट के अनुसार *जनमत संग्रह कश्मीर घाटी* तक ही मर्यादित किया गया था।] ¡¡ सम्पूर्ण कश्मीर नहीं¡¡ [
राजा हरीसिंग और शेख अब्दुल्ला जैसे परस्पर विरोधी प्रवृतियों की पार्श्वभूमि को ध्यान में रखना जरुरी हैं।
[सन 1947 में जब सम्पूर्ण भारत अपनी स्वतंत्रता के आनंदोत्सव मना रहां था उसी समय ¡¡ कश्मीर¡¡ के बहुसंख्य बौध्द जनता, अन्य पिच्छड़ा वर्ग,आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदाय स्वतंत्र भारत के सपूत वह परतंत्रता कि आग में जल रहीं थी।
सवाल में ¡¡लद्दाख¡¡ के बहुसंख्य बौध्दों का भूक्षेत्र उलझन में पड़ गया था।]
राजा हरीसिंग के उदासिन प्रवृति का शेख अब्दुल्ला ने उसका फायदा उठाने का खूब प्रयास किया।
शेख अब्दुल्ला ने मित्र पंडित जवाहरलाल नेहरू से मददत करने कि सिफारिशों में ऐसा दबाव डाला कि, यदि भारत को "कश्मीर-घाटी मुस्लिमों के मतों" कि जरुरत हैं..!
तो कश्मीर की अस्मिता को स्थायी रुप में बरकरार रखना आवश्यक हैं।
शेख अब्दुल्ला (राज्यनीतिक लाभ और सौदेबाजी) के लिए यहीं इच्छा थी कि, "कश्मीर पर केंद्र सरकार का अधिकार संरक्षण, विदेश नीति और संचार विभागों" तक ही मर्यादित रहना चाहिए।
कश्मीर के लिए अलग नागरिक संहिता होनी चाहिए और भारतीय जनता को कश्मीर में किसी भी तरह का अधिकार नहीं होना चाहिए यह उनकी मांग थीं।
चतुर पंडित जवाहरलाल नेहरू नें राज्यनीतिक सौदेबाजी के दृष्टिकोन से शेख अब्दुल्ला को बाबासाहब डा.भीमराव अम्बेडकर जी (तत्कालीन विधिमंत्री) के पास भेजा।
शेख अब्दुल्ला की बातें सुनने के बाद बाबासाहब डा.भीमराव अम्बेडकर जी ने शेख अब्दुल्ला को जो स्पष्ट शब्दों में कहा था कि,
"आपकी इच्छा के अनुसार भारत ने तुम्हारी प्रतिरक्षा करनी चाहिए,
आपके प्रदेश में संचार सेवा और रास्तें (विकास कि योजनाओं तथा सुविधाएँ) बनाने चाहिए।
आपके प्रदेश में अनाज की आपूर्ति पर अधिक खर्च करना चाहिए।
कश्मीर को भारत की बराबरी का अधिकार प्राप्त होने चाहिए, परंतु भारत सरकार को अत्यंत सीमित अधिकार रहेंने चाहिए और भारतीय जनता को कश्मीर में कुछ भी अधिकार नहीं होने चाहिए इन बातों के लिए भारत के विधि मंत्री के नाते मैंने मान्यता देना भारतीय राष्ट्र के हित में विद्रोह करना होगा और मैं यह कभी नहीं करुंगा"।
इससे यह स्पष्ट होता हैं कि "भारतीय संविधान के निर्माता महान बोधिसत्व बाबासाहब डा.भीमराव अम्बेडकर" जी संविधान के अनुच्छेद-Article_ 370 के स्पष्ट विरोधी रहें।
भारतीय संविधान मैं ऐसे हि अनुच्छेद को एक कटुनीति में चतुर पंडित जवाहरलाल नेहरु, सरदार वल्लभभाई पटेल, गोपालस्वामी अय्यंगर जैसे बहुत से व्यक्तित्व ने केवल भ्रष्ट राज्यनीतिक समझौते के स्वरुप में सम्मिलित किया हैं?
धम्मानंद ल.वासनिक_बी.ए.राज्यनीतिक शास्त्र।

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