बुद्ध चरित/जीवनी स्रोत : संस्कृत और पालि ग्रन्थ
बुद्ध निर्वाण के 250 वर्षों के भीतर ही बौद्ध धर्म के 18 निकाय हो गए थे। इन सभी निकायों के अपने-अपने पिटक थे। किन्तु इन 18 निकायों में से एक स्थविर वाद ही रह गया है, जिसका पिटक पालि भाषा में है। बाकि निकाय लुप्त हो गए और उनके वहीँ ग्रन्थ बचे हैं जो चीनी या तिब्बती भाषा में अनुवादित हो चुके हैं(प्राक्थ्थन: दीघनिकाय: राहुल सांस्कृत्यायन, जगदीश काश्यप )।
चीनी अथवा तिब्बती भाषा में अनुवाद 146 ईस्वी के आसपास अधिकतर संस्कृत बौद्ध ग्रंथों से ही हुआ था। कुछ सुत्तों के मिलान से मालूम होता है कि संस्कृत और पालि सुत्तों में बहुत अंतर नहीं था(वही)।
स्रोत-
1. दीघनिकाय : महावग्ग
1.1 महापदान सुत्त: विपस्सी आदि बुद्ध की जीवनी, बुद्धत्व प्राप्ति तक।
1.2. महा परिनिब्बान सुत्त
- पालि दीघनिकाय में 34 सुत्त हैं जबकि चीनी दीर्घागम में 30 सुत्त हैं।
1.3.1 बोधिराजकुमार सुत्त (म. नि. 2-4-5 ) बुद्ध जीवनी गृह-त्याग से बुद्धत्व प्राप्ति तक। चुनार (सुंसुमारगिरी ) में वत्सराज उदय के पुत्र बोधिराज कुमार को बुद्ध के द्वारा अपने बारे में बताया जाना।
1.3.2 अरियपरियेसन सुत्त( म. नि. 1-3-6)
1. ललितविस्तर(लेखक अज्ञात)-
बुद्धचरित पर स्वतन्त्र रूप से लिखा गया ग्रन्थ ईसा की पहली शताब्दी में प्राप्त हुआ है। यह महायान निकाय का ग्रंथ है। इसके लेखक का नाम अभी तक ज्ञात नहीं है। इस ग्रन्थ के आधार पर ही कुछ ही समय बाद अश्वघोष ने 'बुद्धचरित' नामक एक बड़ा संस्कृत महाकाव्य लिखा था।
बुद्ध-जीवनी के इस विशाल ग्रंथ में वैपुल्य-सूत्र(प्रज्ञापारमिताएं आदि) के उपदेश के लिए बुद्ध से सहस्त्रों भिक्षुओं और बोधिसत्वों की परिषद में नाना देवताओं की अभ्यर्थना तथा मौन के द्वारा उसका बुद्ध से स्वीकार वर्णित है। बीच में तुषित लोक से बोधिसत्व के बहुत विमर्श के अनन्तर मातृ-गर्भ में अवतार से आरम्भ कर सम्बोधि के अनन्तर धर्म-चक्र प्रवर्तन तक का वृतान्त निरूपित किया गया है(राहुल सांकृत्यायन: दर्शन-दिग्ग्दर्शन, पृ. 327)।
2 . बुद्धचरित (अश्वघोष)
बुद्धचरित पर अश्वघोष(100 ईस्वीं) ने 'बुद्धचरित' नामक संस्कृत महाकाव्य ईसा की पहली शताब्दी में लिखा था। डॉ भारतसिंह उपाध्याय कृत 'बोधिवृक्ष की छाया में ' के अनुसार इस ग्रन्थ में केवल बुद्ध की जीवनी और उनके उपदेश वर्णित हैं। यह ग्रन्थ अपने मौलिक रूप में 28 सर्गों में है। किन्तु वर्तमान में इसके 17 सर्ग ही उपलब्ध हैं(प्रकासकीय: सौन्दरनन्द ; इक अध्ययन : डॉ सुरेन्द अज्ञात )।
इस ग्रन्थ का पाठ भारतवर्ष के पांच भागों सहित सुमात्रा, जावा और उनके निकटवर्ती द्वीपों में भी होता था।
इत्सिंग ने लिखा है कि उनके समय में यह मनोरम काव्य भारत के पांचों भागों तथा दक्षिणी समुद्र के देशों में सर्वत्र पढा और गाया जाता था(डॉ. परमानन्द सिंहः भूमिका, बौद्ध साहित्य में भारतीय समाज)।
ईस्वीं 414-21 के मध्य इस ग्रन्थ का अनुवाद चीनी भाषा में आचार्य धर्मरक्षित ने किया था और 7-8 वीं शताब्दी में मूल संस्कृत से इसका तिब्बती भाषा में अनुवाद हुआ था(प्रकासकीय: सौन्दरनन्द ; इक अध्ययन : डॉ सुरेन्द अज्ञात)।
अश्वघोष, सम्राट कनिष्क(78-101 या 120 ईस्वी ) के समकालीन थे। प्रसिध्द ‘बुध्दचरित’ संस्कृत महाकाव्य की रचना उन्होंने सम्राट कनिष्क के दरबार में रहते हुए की थी। इसमें भगवान बुध्द के निर्मल सात्विक जीवन का सरल तथा सरस वर्णन है(डॉ. परमानन्द सिंहः भूमिका, बौद्ध साहित्य में भारतीय समाज)।
सनद रहे, सम्राट कनिष्क के समय पेशावर में चतुर्थ बौद्ध संगीति हुई थी। कहा जाता है कि इसके पीछे अश्वघोष ही थे। इस संगीति में मत-भेदों को दूर करने के लिए अश्वघोष ने ‘विभाषा’ लिखा था जिसे ताम्र-पत्रों में खुदवाकर एक स्तूप में सुरक्षित कर दिया था। लेख है कि इसी ‘विभाषा’ से वैभाषिक दर्शन साखा की स्थापना हुई। अश्वघोष की प्रेरणा से कनिष्क ने धम्म प्रचार के लिए तिब्बत, मंगोलिया और खोतान आदि देसों में बौद्ध भिक्खु भेजें।
डॉ बाबासाहब अम्बेडकर ने 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' में अश्वघोष के बुद्धचरित से पर्याप्त सामग्री ली है, जैसे कि बाद में भदंत आनंद कौसल्यायन ने अनुवाद करते समय उन सन्दर्भों को चिन्हित कर अंकित किया है.
3. बुद्धचरित पर एडविन आर्नोल्ड की कृति 'एशिया का प्रकाश' सन 1879 में प्रकाशित हुई थी।
सन रामचंद्र शुक्ल ने सन 192 2 में इसका पद्यानुवाद ब्रजभाषा में किया था।
4. बोधिचर्यावतार (शांतिदेव)
आचार्य शांतिदेव 7 वीं सदी में हुए थे। लामा तारानाथ के अनुसार ये गुजरात के किसी राजा के पुत्र थे। अंत में वे भिक्खु हो गए थे। ये जयदेव के शिष्य थे। जयदेव नालंदा के पीठ स्थविर धर्मपाल के उत्तराधिकारी थे(A History of Indian Literature by M. Winternitz Vol. II, PP 365-366)।
बोधिचर्यावतार 10 परिच्छेदों और 913 श्लोकों में परिनिष्ठित हुआ है। यह ग्रन्थ भारत में किसी समय बहुत लोकप्रिय था और इसलिए इस पर अनेकों टिकाएं लिखी गई। भोट देश (तिब्बत) में इस ग्रन्थ का पाठ आज भी गीता की भांति होता है।
बुद्ध निर्वाण के 250 वर्षों के भीतर ही बौद्ध धर्म के 18 निकाय हो गए थे। इन सभी निकायों के अपने-अपने पिटक थे। किन्तु इन 18 निकायों में से एक स्थविर वाद ही रह गया है, जिसका पिटक पालि भाषा में है। बाकि निकाय लुप्त हो गए और उनके वहीँ ग्रन्थ बचे हैं जो चीनी या तिब्बती भाषा में अनुवादित हो चुके हैं(प्राक्थ्थन: दीघनिकाय: राहुल सांस्कृत्यायन, जगदीश काश्यप )।
चीनी अथवा तिब्बती भाषा में अनुवाद 146 ईस्वी के आसपास अधिकतर संस्कृत बौद्ध ग्रंथों से ही हुआ था। कुछ सुत्तों के मिलान से मालूम होता है कि संस्कृत और पालि सुत्तों में बहुत अंतर नहीं था(वही)।
स्रोत-
1. दीघनिकाय : महावग्ग
1.1 महापदान सुत्त: विपस्सी आदि बुद्ध की जीवनी, बुद्धत्व प्राप्ति तक।
1.2. महा परिनिब्बान सुत्त
- पालि दीघनिकाय में 34 सुत्त हैं जबकि चीनी दीर्घागम में 30 सुत्त हैं।
1.3.1 बोधिराजकुमार सुत्त (म. नि. 2-4-5 ) बुद्ध जीवनी गृह-त्याग से बुद्धत्व प्राप्ति तक। चुनार (सुंसुमारगिरी ) में वत्सराज उदय के पुत्र बोधिराज कुमार को बुद्ध के द्वारा अपने बारे में बताया जाना।
1.3.2 अरियपरियेसन सुत्त( म. नि. 1-3-6)
1. ललितविस्तर(लेखक अज्ञात)-
बुद्धचरित पर स्वतन्त्र रूप से लिखा गया ग्रन्थ ईसा की पहली शताब्दी में प्राप्त हुआ है। यह महायान निकाय का ग्रंथ है। इसके लेखक का नाम अभी तक ज्ञात नहीं है। इस ग्रन्थ के आधार पर ही कुछ ही समय बाद अश्वघोष ने 'बुद्धचरित' नामक एक बड़ा संस्कृत महाकाव्य लिखा था।
बुद्ध-जीवनी के इस विशाल ग्रंथ में वैपुल्य-सूत्र(प्रज्ञापारमिताएं आदि) के उपदेश के लिए बुद्ध से सहस्त्रों भिक्षुओं और बोधिसत्वों की परिषद में नाना देवताओं की अभ्यर्थना तथा मौन के द्वारा उसका बुद्ध से स्वीकार वर्णित है। बीच में तुषित लोक से बोधिसत्व के बहुत विमर्श के अनन्तर मातृ-गर्भ में अवतार से आरम्भ कर सम्बोधि के अनन्तर धर्म-चक्र प्रवर्तन तक का वृतान्त निरूपित किया गया है(राहुल सांकृत्यायन: दर्शन-दिग्ग्दर्शन, पृ. 327)।
2 . बुद्धचरित (अश्वघोष)
बुद्धचरित पर अश्वघोष(100 ईस्वीं) ने 'बुद्धचरित' नामक संस्कृत महाकाव्य ईसा की पहली शताब्दी में लिखा था। डॉ भारतसिंह उपाध्याय कृत 'बोधिवृक्ष की छाया में ' के अनुसार इस ग्रन्थ में केवल बुद्ध की जीवनी और उनके उपदेश वर्णित हैं। यह ग्रन्थ अपने मौलिक रूप में 28 सर्गों में है। किन्तु वर्तमान में इसके 17 सर्ग ही उपलब्ध हैं(प्रकासकीय: सौन्दरनन्द ; इक अध्ययन : डॉ सुरेन्द अज्ञात )।
इस ग्रन्थ का पाठ भारतवर्ष के पांच भागों सहित सुमात्रा, जावा और उनके निकटवर्ती द्वीपों में भी होता था।
इत्सिंग ने लिखा है कि उनके समय में यह मनोरम काव्य भारत के पांचों भागों तथा दक्षिणी समुद्र के देशों में सर्वत्र पढा और गाया जाता था(डॉ. परमानन्द सिंहः भूमिका, बौद्ध साहित्य में भारतीय समाज)।
ईस्वीं 414-21 के मध्य इस ग्रन्थ का अनुवाद चीनी भाषा में आचार्य धर्मरक्षित ने किया था और 7-8 वीं शताब्दी में मूल संस्कृत से इसका तिब्बती भाषा में अनुवाद हुआ था(प्रकासकीय: सौन्दरनन्द ; इक अध्ययन : डॉ सुरेन्द अज्ञात)।
अश्वघोष, सम्राट कनिष्क(78-101 या 120 ईस्वी ) के समकालीन थे। प्रसिध्द ‘बुध्दचरित’ संस्कृत महाकाव्य की रचना उन्होंने सम्राट कनिष्क के दरबार में रहते हुए की थी। इसमें भगवान बुध्द के निर्मल सात्विक जीवन का सरल तथा सरस वर्णन है(डॉ. परमानन्द सिंहः भूमिका, बौद्ध साहित्य में भारतीय समाज)।
सनद रहे, सम्राट कनिष्क के समय पेशावर में चतुर्थ बौद्ध संगीति हुई थी। कहा जाता है कि इसके पीछे अश्वघोष ही थे। इस संगीति में मत-भेदों को दूर करने के लिए अश्वघोष ने ‘विभाषा’ लिखा था जिसे ताम्र-पत्रों में खुदवाकर एक स्तूप में सुरक्षित कर दिया था। लेख है कि इसी ‘विभाषा’ से वैभाषिक दर्शन साखा की स्थापना हुई। अश्वघोष की प्रेरणा से कनिष्क ने धम्म प्रचार के लिए तिब्बत, मंगोलिया और खोतान आदि देसों में बौद्ध भिक्खु भेजें।
डॉ बाबासाहब अम्बेडकर ने 'बुद्धा एंड हिज धम्मा' में अश्वघोष के बुद्धचरित से पर्याप्त सामग्री ली है, जैसे कि बाद में भदंत आनंद कौसल्यायन ने अनुवाद करते समय उन सन्दर्भों को चिन्हित कर अंकित किया है.
3. बुद्धचरित पर एडविन आर्नोल्ड की कृति 'एशिया का प्रकाश' सन 1879 में प्रकाशित हुई थी।
सन रामचंद्र शुक्ल ने सन 192 2 में इसका पद्यानुवाद ब्रजभाषा में किया था।
4. बोधिचर्यावतार (शांतिदेव)
आचार्य शांतिदेव 7 वीं सदी में हुए थे। लामा तारानाथ के अनुसार ये गुजरात के किसी राजा के पुत्र थे। अंत में वे भिक्खु हो गए थे। ये जयदेव के शिष्य थे। जयदेव नालंदा के पीठ स्थविर धर्मपाल के उत्तराधिकारी थे(A History of Indian Literature by M. Winternitz Vol. II, PP 365-366)।
बोधिचर्यावतार 10 परिच्छेदों और 913 श्लोकों में परिनिष्ठित हुआ है। यह ग्रन्थ भारत में किसी समय बहुत लोकप्रिय था और इसलिए इस पर अनेकों टिकाएं लिखी गई। भोट देश (तिब्बत) में इस ग्रन्थ का पाठ आज भी गीता की भांति होता है।
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