Monday, August 12, 2019

'ब्रह्मज्ञान' औरों के लिए

"अब मैं गृहस्थाश्रम में पड़े नहीं रहना चाहता। आओ, जो कुछ मेरे पास धन-संपत्ति है, तुम्हारे और कात्यायनी के बीच बांट दूं।"- ऋषि याग्यवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा।
"अगर यह सारी पृथ्वी वित्त से भर कर मेरी हो जाए तो क्या मैं उससे अमर हो जाउंगी ?"
"नहीं, बस तुम चैन से जीवन निर्वाह कर सकती हो। धन-धान्य से अमरता पाने की तो आशा नहीं हो सकती।"

विदेहराज जनक ने एक बड़ा यज्ञ कराया। यज्ञ में विदेह के ब्राह्मणों के अतिरिक्त कुरु, पांचाल के ब्राह्मण भी पधारे थे। राजा जनक स्वत: ब्रह्म-ज्ञानी थे। तो भी वे जानना चाहते थे कि इन ब्राह्मणों में अतिशय ब्रह्म-ज्ञानी कौन है ? इस उद्देश्य से राजा ने 1000 गौवें मंगवा ली और एक-एक गौ के दोनों सींगों में दस-दस तोले सोना यह कह कर बंधवा दिया कि उपस्थित ब्रह्म-ज्ञानियो में जो सबसे श्रेष्ठ ब्रह्म-ज्ञानी हो, इन सब गोवों को अपने घर ले जा सकता है। "

शास्त्रार्थ हुआ और ब्राह्मण याग्यवल्क्य उन 20, 000 तोले सोना बंधी गौवों को अपने आश्रम हांक ले गए। उनका 'ब्रह्म-ज्ञान' औरों के लिए था।  

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