---"सुनो ब्राह्मणों तुमने जो हम पर जुल्म किये उनकी एक झलक देख लो''---
हमारे गाँव में भी कुछ हरि होते थे..
कुछ जन होतेथे...
जो हरि होते थे.. वह जन के साथ..
न उठते थे...न बैठते थे...न खाते थे..न पीते थे...
यहाँ तक कि जन की परछाई तक से परहेज करते थे..
कुछ जन होतेथे...
जो हरि होते थे.. वह जन के साथ..
न उठते थे...न बैठते थे...न खाते थे..न पीते थे...
यहाँ तक कि जन की परछाई तक से परहेज करते थे..
यदि कोई प्यासा जन...भूल या मजबूरी बश
हरि कुंएं की जगत पर पांव भी रख दे
तो कुंए का पानी मूत में बदल जाता था...
हमारे गाँव में जो जन होते थे..
वह जूता बनाते थे.. कपड़ा बुनते थे..मैला उठाते थे..
हरि कुंएं की जगत पर पांव भी रख दे
तो कुंए का पानी मूत में बदल जाता था...
हमारे गाँव में जो जन होते थे..
वह जूता बनाते थे.. कपड़ा बुनते थे..मैला उठाते थे..
जो हरि होते थे...जूता पहनते थे
शास्त्र बांचते थे...दुर्गन्ध पौंकते थे...
इसके अलावा हरि हवेली की...लिसाई-पुताई,
गली-कूँचें की सफाई..चौका-बरतन..बालों की कटाई,
कपड़ों की धुलाई..जन ही करते थे..
शास्त्र बांचते थे...दुर्गन्ध पौंकते थे...
इसके अलावा हरि हवेली की...लिसाई-पुताई,
गली-कूँचें की सफाई..चौका-बरतन..बालों की कटाई,
कपड़ों की धुलाई..जन ही करते थे..
और कुछ, उसके मीलों पसरे खेतों की
जुताई, बुबाई, गहाई कर..हरि खत्ती को
धन धान्य से भरते थे..
खुद नंगेपांव , नंगे बदन
कच्ची दीवार टंगी फूसिया छतों में
पत्थर पेट बांध सोते थे...
जुताई, बुबाई, गहाई कर..हरि खत्ती को
धन धान्य से भरते थे..
खुद नंगेपांव , नंगे बदन
कच्ची दीवार टंगी फूसिया छतों में
पत्थर पेट बांध सोते थे...
हमारे गाँव में नम्रता
जन की खास पहचान थी
और उद्दण्डता हरि का बांकपन.
तभी तो वह बोहरे का लौंडा,
जो ढंग से नाड़ा भी नहीं खोल पाता,
को दूर से ही आता देख
मेरे बाबा ‘कुंवरजू पांव लागूं’ कहता थे
जन की खास पहचान थी
और उद्दण्डता हरि का बांकपन.
तभी तो वह बोहरे का लौंडा,
जो ढंग से नाड़ा भी नहीं खोल पाता,
को दूर से ही आता देख
मेरे बाबा ‘कुंवरजू पांव लागूं’ कहता थे
और वह अशिष्ट अपना हर सवाल
तू से शुरू करता था ..तू पर ही खत्म करता था..
इसका मतलब यह हरगिज नहीं कि -
जन को गुस्सा नही आता था
आता था बहुत-बहुत आता था...
तू से शुरू करता था ..तू पर ही खत्म करता था..
इसका मतलब यह हरगिज नहीं कि -
जन को गुस्सा नही आता था
आता था बहुत-बहुत आता था...
लेकिन अफसोस ..यह गुस्सा
सांपिन बन अपनों को ही खाता था..
जब हरि की साजिश से
दूसरी पांति का जन,
ताल ठोंक मैदान में उतर आता था
सांपिन बन अपनों को ही खाता था..
जब हरि की साजिश से
दूसरी पांति का जन,
ताल ठोंक मैदान में उतर आता था
लेकिन भैया...
पेट की मार...सयानी उंगलियों की बटबार -
को जन क्या ?
दुध मुंहा जानवर भी भांप जाता था..
ऊपर से दादा की झुकी कमर ने बाताया कि -
बेगार चाहे चिलम थमा कर ली जाये
या लाठी दिखा कर
पेट की मार...सयानी उंगलियों की बटबार -
को जन क्या ?
दुध मुंहा जानवर भी भांप जाता था..
ऊपर से दादा की झुकी कमर ने बाताया कि -
बेगार चाहे चिलम थमा कर ली जाये
या लाठी दिखा कर
दोनों में कोई बुनियादी फर्क नहीं था..
आपने जो ओझाई की बात कही थी
सो हमारे गाँव पर भी..सौ फीसदी सही थी..
यह ससुरी ओझाई ही तो थे
जिसके कारन जन हमेशा ...
उस खूंटे से बंधा थे..जिसका एक पांव
शैतान की आंत में...
आपने जो ओझाई की बात कही थी
सो हमारे गाँव पर भी..सौ फीसदी सही थी..
यह ससुरी ओझाई ही तो थे
जिसके कारन जन हमेशा ...
उस खूंटे से बंधा थे..जिसका एक पांव
शैतान की आंत में...
दूसरा पांव धरती की कांख में धसा था
वह खूंटा वनराज था.. हमारे गाँव के खेत
खलिहान और हाट में
बस उसी की सत्ता चलती थी
देश का सर्वोच्च पंचायत घर उसी की तर्जनी पर टंगा था
वह खूंटा वनराज था.. हमारे गाँव के खेत
खलिहान और हाट में
बस उसी की सत्ता चलती थी
देश का सर्वोच्च पंचायत घर उसी की तर्जनी पर टंगा था
और गाँव के दगड़े में..कछुआ सी रेंगती
बोझा गाड़ी की धुरी में ..वह खूंटा ही धसा था..
जिसे जन खींचता था...लथपथ पसीने में
माथा ठोक रोज रोज...भैंसे सा हांफता था...
बोझा गाड़ी की धुरी में ..वह खूंटा ही धसा था..
जिसे जन खींचता था...लथपथ पसीने में
माथा ठोक रोज रोज...भैंसे सा हांफता था...
वह अव्वल दर्जे का बहरू पिया था..
अपने दुर्ग को बचाने हेतु कहीं रामनामी ओढ़...कीर्तन गाता था.
कहीं गिरजा की सीढी से..रास्ता मोक्ष का दिखाता था..
कहीं गुरू तख्त से...‘सत श्री अकाल’ का नारा लगाता था..
कहीं मस्जिद में सूअर...मन्दिर में गोकशी करा
जन जन के हाथों में..गड़ाँ से थमाता था
अपने दुर्ग को बचाने हेतु कहीं रामनामी ओढ़...कीर्तन गाता था.
कहीं गिरजा की सीढी से..रास्ता मोक्ष का दिखाता था..
कहीं गुरू तख्त से...‘सत श्री अकाल’ का नारा लगाता था..
कहीं मस्जिद में सूअर...मन्दिर में गोकशी करा
जन जन के हाथों में..गड़ाँ से थमाता था
कहीं जन कल्याण का..खूबसूरत अंगरखा पहन
झोंपड पट्टी के अंधेरों में..सपने उगाता था..
हराम खोर..
विश्व को कपोत घर बनाने की बात करता था
खुद बंजी..हथियारों की करता था
और आजादी तक जाने वाले
हर रास्ते पर..बबूल वन बोता था...
झोंपड पट्टी के अंधेरों में..सपने उगाता था..
हराम खोर..
विश्व को कपोत घर बनाने की बात करता था
खुद बंजी..हथियारों की करता था
और आजादी तक जाने वाले
हर रास्ते पर..बबूल वन बोता था...
जय भीम नमो बुद्धाय
करन वर्मा
इटावा (उ0प्र0)
मो0 - 9410045781
करन वर्मा
इटावा (उ0प्र0)
मो0 - 9410045781
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