Wednesday, August 14, 2019

ईश्वर

हर कार्य का कारण होता है। यह कार्य-कारण का सिलसिला अनवरत है।  कोई-कोई प्रश्न करते हैं की कई तो इसका अंत होगा ? कोई तो ऐसा कारण होगा जो अंतिम हो ?
बुद्ध कार्य-कारण की निरन्तर या अविच्छिन्न सन्तति को नहीं मानते(दर्शन दिग्ग्दर्शन पृ 514 ) . बुद्ध के अनुसार यह संसार बिना सिरे का है। न इसका आदि है और न अंत है(संयुक्त निकाय )। एक फल न तो अपने से ही उत्पन्न होता है  और न कोई दूसरा उसे उत्पन्न करता है।  यह कारण के होने से उत्पन्न होता है और कारण के न होने से इसकी उत्पत्ति रुक जाती है। कोई भी कारण पहला कारण नहीं हो सकता। हमें ऐसा कोई कारण नहीं दिखाई देता जिसमें से कोई दूसरे कार्य उत्पन्न हुए हों  और जो स्वयं किसी न किसी कारण से उत्पन्न न हुआ हो।
जब भी किसी प्रथम कारण की स्थापना की जाती है, हम देखते हैं की हम, अपने ज्ञान की एक अस्थायी सीमा पर जाकर रुक गए हैं या अपने इन्द्रिय-जनित ज्ञान के क्षेत्र से बाहर किसी चीज का अनुमान लगा रहे हो; जबकि वहां पहुँच कर न तो ज्ञान का ही कोई अर्थ है और न अनुमान का(दी इसेन्स ऑफ़ बुद्धिज़्म , पृ 191 )।
वस्तुत: हम किसी ऐसे कार्य की  कल्पना ही नहीं कर सकते जिसका कोई भी कारण न हो(वही )।
तो क्या कहीं कोई ईश्वर नहीं है ? अनाथ पिंडक के साथ चर्चा करते हुए बुद्ध ने कहा- यदि यह सृष्टि किसी ईश्वर द्वारा बनाई गई होती, तो इसमें कुछ परिवर्तन नहीं होता , दुक्ख-दर्द नाम की कोई चीज नहीं होती, सही या गलत भी कुछ न होता। क्योंकि पवित्र-अपवित्र सभी चीजों का मूल तो वही होता है।  यदि दुक्ख और सुख, प्रेम और घृणा जो सभी प्राणियों के चित्त में विद्यमान रहती है, ईश्वर की कृति होती, उस ईशवर में भी दुक्ख-सुख का निवास होना चाहिए, प्रेम और घृणा का घर होना चाहिए और यदि उस ईश्वर में ये सब कुछ हैं तो उसे परिपूर्ण कैसे मान सकते हैं ?  यदि ईश्वर सभी प्राणियों का निर्माता है और सभी प्राणियों को अपने निर्माता के सामने  सिर झुकाए खड़ा रहना है तो शील के अभ्यास का क्या प्रयोजन ? पुन्य-पाप का करना सामान होगा, क्योंकि सभी कर्म तो ईश्वर की ही कृति है और अपने कर्ता की दृष्टि में वे सामान ही होंगे।  यदि यह माना जाए की दुक्ख-सुख का कारण कुछ और भी होगा, जिस का कारण ईश्वर नहीं होगा, तब जो कुछ भी विद्यमान है , उस सभी को बिना ईश्वर के उत्पन्न क्यों न मान लिया जाए ?
दूसरे, यदि ईश्वर को कर्ता माना जाए तो प्रश्न उठता है की क्या उसकी यह रचना सोद्देश्य है ? यदि माना जाए की सोद्देश्य है तो ईश्वर को परिपूर्ण नहीं माना जा सकता।  क्योंकि सोद्देश्य का मतलब है किसीच्छा की पूर्ति. यदि यह कहा जाए की उसकी यह रचना बिना किसी उद्देश्य के है तो या तो वह पागल होगा या कोई दूध पीता बच्चा। फिर यदि ईश्वर निर्माता है तो लोग उसके सम्मुख यूं ही विनम्र भाव से स्थित क्यों नहीं रहते ? वे मज़बूरी की हालत में ही क्यों उससे मिन्नतें, प्रार्थनाएं करते हैं ? और लोग एक ही ईश्वर की पूजा न कर अनेक देवताओं को क्यों पूजते हैं(अश्वघोष का बुद्धचरित )।
यदि ईश्वरवादियों के अनुसार ईश्वर इतना महान है की वह आदमी के बुद्धि का विषय नहीं बन सकता  तो इसका मतलब हुआ की उसके गुण भी हमारे चिंतन सीमा के भीतर आबद्ध नहीं हो सकते।  इसका मतलब हुआ की न तो हम उसे जान सकते हैं और न उस पर कर्ता होने का गुण ही आरोपित कर सकते है(बोधिचर्यावतार )।

प्रश्न पूछ जाता है की जिस विश्व में हम रहते हैं, क्या वह एक नियम-बढ विश्व नहीं है , जहाँ सभी कुछ नियमानुसार होता है ? और अगर नियम-बद्ध है तो वहां एक  नियंता भी होना चाहिए ?
वस्तुत: कोई प्राकृतिक नियम ऐसा नहीं है, जो किसी प्राकृतिक नियम-बद्धता का कारण हो। हर प्राकृतिक नियम केवल उन अवस्थाओं  या परिस्थितियों का वर्णन करता है, जिन पर परिवर्तन-विशेष निर्भर करता है। एक वस्तु जमीन पर गिरती है, वह पृथ्वी के आकर्षण के नियम के कारण नहीं गिरती, बल्कि पृथ्वी के आकर्षण का नियम केवल इस घटना का नपा-तुला वर्णन है कि जब किसी भी वस्तु को आकाश से बेसहारा छोड़ दिया जाए तो वह पृथ्वी पर गिर पड़ती है।
कोई भी प्राकृतिक नियम यह आज्ञा नहीं देता कि वह ऐसा घटित होगा।  वह केवल यही वर्णित करता है कि ऐसा होता है। वास्तव में प्राकृतिक नियम बार-बार घटने वाली घटनाओं का वर्णन मात्र होता है। सच तो यह है कि प्रकृति मनुष्य को नियम प्रदान नहीं करती बल्कि मनुष्य, प्रकृति को नियम प्रदान करता है। 

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