हुआन-त्सांग
(भारत प्रवास 630-644 ईस्वी)
हुआन-त्सांग जन्म चीन के होनान प्रान्त में 602 र्ठस्वी में हुआ था। वे 13 वर्ष की आयु में सामणेर और 20 वर्ष की आयु में भिक्षु हो गए थे। इस समय चीन में हीनयान और महायान के अन्तर्गत अनेक और विविध बौद्ध सम्प्रदाय प्रचलित थे। हुआन-त्सांग महायान का अनुयायी था(बौद्ध धर्म का इतिहास, परिशिष्ट- 1 हुआन-त्सांग के जीवन का रेखाचित्र : डॉ. चाउ सिआंग कुआंगः सम्यक प्रका. दिल्ली)।
26 वर्ष की अवस्था में उसने चीनी राज्य शासन की वैधानिक आज्ञा प्राप्त किए बिना भारत की यात्रा शुरू की थी। चीन के पश्चिमान्त प्रान्त आधुनिक कान्सु से गोबी मरुस्थल को पार कर हामी पहुंचा। हामी से तुर्फान पहुंचा। यहां के लोग बौद्धधर्मावलम्बी थे। वे अनेक भारतीय धर्म-ग्रंथों का अनुवाद संस्कृत से तोखारिश भाषा में कर चुके थे(वही)।
हुआन-त्सांग कुछ दिन यहां के मठवासी भिक्खुओं के साथ बिता कर कु-चा की ओर प्रस्थान किया जो उस समय मध्य एशिया का सबसे महत्वपूर्ण नगर था। कु-चा के राजा सुवर्णदेव ने, जो तोखारिश-वंश का था, हुआन-त्सांग का बड़ा सत्कार किया। कु-चा में हीनयान प्रचलित था(वही)।
कु-चा से हुआन-त्सांग चाश पहुंचा। चाश से समरकन्द होता हुआ लोह दर्रे के दक्खिण ऑक्सस नदी को पार कर बैक्टिआ(जो आधुनिक अफगानिस्तान का उत्तरी भाग है ) में प्रवेश किया। बैक्टिआ के बाद उसने हिम पर्वत(हिन्दूकुश पर्वत ) को पार किया। अंत में कारकोत्तल और दंदानेशिकन दर्रों को पार करके हुआन-त्सांग बामियान पहुंचाए जहां 10 बुद्धविहार थे जिनमें कई हजार धर्मार्थी और भिक्खु रहते थे(वही)।
हुआन-त्सांग जब बामियान से गांधार पहुंचा, जहां महायान के दो प्रमुख दार्शनिकों- पेशावर निवासी असंग और वसुबन्धु का आर्विभाव हुआ था, उसे भारी निराशा हुई। क्योंकि यहां एक शताब्दी पूर्व हुए हूणों के आक्रमण ने सारी बौद्ध सभ्यता नष्ट कर दी थी। ग्राम और नगर जनशून्य थे और बौद्ध स्तूप खण्डहर हो रहे थे (वही)।
पेशावर से चलकर हुआन-त्सांग काबुल नदी पार कर पंजाब की महानगरी तक्षशिला देखने गया। यह प्राचीन राजधानी सिकन्दर के समय में युनानियों को ज्ञात थी और आगे चलकर भारत के सम्राट अशोक ने उसे अपने साम्राज्य के पश्चिमोत्तर भाग की राजधानी बनाकर अलंकृत किया था। अशोक के बाद तक्षशिला पर यूनानियों को पुनः अधिकार हो गया। युनानी बौद्धकला की चूर्ण लेप निर्मित जो लधु मूर्तियां सर जान मार्शल को यहां से सैकड़ों की संख्या में प्राप्त हुई हैं, से सिद्ध होता है कि इस नगर के मूर्तिकारों ने गांधार-कला की गौरवशाली परम्परा को हूणों के आक्रमण के समय(5 शती इ्र.) तक जारी रखा था(वही)।
राजनीतिक दृष्टि से सातवीं शताब्दी में तक्षशिला काश्मीर राज्य के अन्तर्गत था, जो सदा से धार्मिक आन्दोलनों का केन्द्र रहा है। नवीं शताब्दी में वह शैव सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र था। हुआन-त्सांग के समय वहां बौद्ध धर्म ही प्रबल था(वही)।
जब हुआन-त्सांग कश्मीर की राजधानी प्रवरपुर(वर्तमान श्रीनगर) पहुंचा तो वहां का राजा उनसे मिलने स्वयं आया। अगले दिन धर्म के गूढ़ प्रश्नों पर प्रवचन देने उसने हुआन-त्सांग को आमंत्रित किया। जब उसने यह जाना कि विद्यानंराग ही उसे(हुआन-त्सांग) को सुदूर देश से खींच लाया है और पढ़ने के लिए उसके पास ग्रंथ नहीं हैं तो राजा ने उसकी सेवा में बौद्ध-ग्रंथों तथा अन्य उत्तरकालीन दार्शनिक ग्रंथों को प्रस्तुत करने के लिए 20 लिपिक नियुक्त कर दिए। हुआन-त्सांग कश्मीर में करीब 2 वर्ष (631- 33 ई.) ग्रंथों का अध्ययन करते रहा(वही)।
कश्मीर से चलकर हुआन-तसांग पंजाब के साकल और जालन्धर नगर पहुंचा जो एक महत्वपूर्ण बौद्ध केन्द्र था। यहां 50 से अधिक बुद्धविहार थे। जालन्धर से मथुरा होता हुआ वह कान्यकुब्ज (वर्तमान कनौज) पहुंचा। उस समय कनौज पर सम्राट हर्षवर्द्धन का शासन था। हर्षवर्द्धन तब राजधानी के बाहर थे, तब भी राज्य का शासन और नगर की वैभवता देखकर हुआन-त्सांग चकित रह गया। कनौज के भद्र विहार में ति-पिटकों तथा उनकी टीकाओं के अध्ययन के लिए वह करीब 3 माह रुका रहा। यहां से गंगा पार कर उसने अयोध्या के देश अवध में प्रवेश किया, जहां असंग और वसुबन्धु की कीर्ति अभी भी व्याप्त थी। यहां से प्रयाग और प्रयाग से वह एक अन्य गुप्तकालीन राजधानी यमुना तट पर स्थित कौशांबी(वर्तमान कोसम) को गया। वहां उसने बुद्ध के आगमन के स्मारकों, अशोक के स्तूप, दुमंजिले मण्डप, जिसमें वसुबन्धु ने अपना ग्रंथ लिखा था, आम्रवन, जहां असंग कुछ दिन रहा, आदि के दर्शन किए(वही)।
कौशम्बी के बाद हुआन-त्सांग सावस्थी(वर्तमान सहेत-महेत) गया। बुद्ध के समय यह प्राचीन राज्य कोसल(वर्तमान उ. प्र. के अवध) की राजधानी थी। सावस्थी में ही जेतवन था। इसे बुद्ध के समकालीन धनाठ्य सेट्ठि अनाथपिण्डक ने भिक्खु-संघ को समर्पित किया था। किन्तु इतनी शताब्दियां बीतने के बाद भी उसके निर्मल सरोवर, श्यामल हरीतिमा और असंख्य फूलों को देखकर हुआन-त्सांग ने उसकी बड़ी प्रशंसा की। अशोक ने इस स्थान पर एक शिलालेख स्थापित करवाया था, जिस पर वृषभ और धम्मचक्र बने थे किन्तु हुआन-त्सांग के समय यह जर्जरभूत मठ के निकट केवल यही स्तम्भ अवशिष्ट थे(वही)।
तदुपरान्त वह बुद्ध के जन्म स्थान कपिलवस्तु पहुंचा। सनद रहे, पुराततववेत्ताओं ने इसे नेपाल की तराई में स्थित तिलौराकोट में स्थापित किया है। यही कपिलवस्तु के उत्तरपूर्व में लुम्बिनी वन था। हुआन-त्सांग कपिलवस्तु के बाद कुसीनगर गया जहां बुद्ध ने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था। यहां ये वह सारनाथ आया जहां बुद्ध ने प्रथम धर्मोपदेश दिया था। सारनाथ से वह वैशाली पहुंचा, जहां बुद्ध महापरिनिर्वाण के 100 वर्ष बाद दूसरी बौद्ध-संगति हुई थी। सारनाथ से बुद्धगया पहुंचा जहां भगवान बुद्ध ने बोधि प्राप्त की थी। यहां उसने बोधि वृक्ष के दर्शन किए और अन्य पवित्रा स्थलों की पूजा की(वही)।
बुद्धगया के उत्तरपूर्व में स्थित नालन्दा विश्वविद्यालय 7वीं सदी में विश्व में ख्याति प्राप्त शिक्षा-संस्थान था। नालन्दा में हुआन-त्सांग का बड़ा आत्मीय स्वागत हुआ। पताकाओं, छत्रों और पुष्पों के साथ 200 भिक्खुओं तथा करीब 1000 उपासकों ने जुलूस बना कर उसका स्वागत किया। वहां के आचार्य शीलभद्र के चरणों में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की। शीलभद्र ने उसके सामने विज्ञानवाद के सारे रहस्य खोल कर रख दिए। महायानी विज्ञानवाद के संस्थापक असंग और वसुबन्धु के उत्तराधिकारी तर्काचार्य ज्ञान हुए। ज्ञान के शिष्य नालन्दा के प्रधानाचार्य धम्मपाल और धम्मपाल के शिष्य शीलभद्र थे(वही)।
राजगृह से नालन्दा आने के बाद हुआन-त्सांग मगध की एतिहासिक राजधानी पाटलीपुत्र गया। यहीं प्रथम मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ने यूनानी राजदूतों को राजनीतिक मान्यता दी थी(वही)।
हुआन-त्सांग 638 ई. में गंगा पार कर बंगाल की खाड़ी में स्थित ताम्रलिप्ति(वर्तमान में तामलुक) बन्दरगाह पहुंचा। हुआन-तसांग के पूर्व फाह्यान तामंलिप्ति होता हुआ समुद्री मार्ग से सिंहलद्वीप गया था। किन्तु उसके द्वारा समुद्री यात्रा का लोमहर्षक वर्णन सुन उसने दक्षिणी भारत से पाक जलडमरूमध्य मार्ग द्वारा जाने का निश्चय किया(वही)।
तदानुसार हुआन-त्सांग भागलपुर से उड़िसा और आन्ध्र पहुंचा। तब आन्ध्र बौद्ध संस्कृति का एक केन्द्र था। 5वीं शतीं के उत्तरार्ध में विख्यात बौद्धाचार्य ज्ञान ने कई ग्रंन्थों का प्रणयन अमरावती में किया था। कुछ महिनों बाद हुआन-त्सांग पल्लव राज्य की राजधानी कांचीवरम पहुंचा(वही)।
पल्ल्व राज्य से निकलकर मलाकोट्टाई होता हुआ वह महाराष्ट आया। यहां अद्भूत भिति-चित्रों से अलंकृत अजंता की गुफाएं हैं। महाराष्ट से वह मालवा, गुजरात और पुनः सिन्ध होता हुआ नालन्दा पहुंचा। इस मध्य उसे कामरूप के राजा और साथ ही थानेसर के सम्राट हर्षवर्द्धन का उनके राज्य में कुछ समय व्यतीत करने का आमंत्राण मिला। उसने मार्ग की अतीव दुर्लभता को ध्यान में रखकर सम्राट हर्षवर्धन का आमंत्रण स्वीकार कर लिया(वही)।
शिलादित्य हर्ष ब्रम्हपुत्र से गुजरात और विन्ध्य पर्वत तक प्रायः समग्र उत्तर भारत का शासक था। हुआन-त्सांग के पहुंचने पर हर्ष ने उसके चरणों पर शिर रख कर नमन किया। सम्राट हर्षवर्द्धन ने एक विराट दार्शनिक शास्त्रार्थ का आयोजन किया। ईस्वीं 643 के आरम्भ में राजधानी कन्नौज में आयोजित इस शास्त्रार्थ तथा गंगा-यमुना संगम प्रयाग (वर्तमान इलाहाबाद ) में आयोजित दूसरे शास्त्रार्थ के समाप्त होने के बाद हुआन-त्सांग ने चीन लौटने का निश्चय किया(वही)।
तुर्फान नरेश ने तोखारिश और तुर्क देशों में उसकी यात्रा के लिए प्रबन्ध कर रखा था। हुआन-त्सांग को उपहारों से लाद देने के उपरान्त हर्ष ने उसे जाने की आज्ञा दी। यमुना तट स्थित कौशाम्बी होकर वह कन्नौज, जालन्धर, तक्षशिला होते हुए 644 ई. में उसने सिन्धु नदी पार की(वही)।
गांधार की छोटी-छोटी रियासतो के राजा कपिसा से विदा होकर हुआन-तसांग ने 646 ई. में हिन्दूकुश और पामीर होकर काशगर जाने वाले मार्ग से प्रस्थान किया। काशगर के निवासी हीनयानी थे। काशगर से वह महायानी प्रबल देश यारकन्द पहुंचा। यहां से लगभग सित. 644 ई. में वह एक प्राचीन और सभ्य देश खुतन पहुंचा। खुतन के लोग श्रद्धावान, साहित्य और कला के प्रेमी थे। सर ऑरेल स्टाइन को खुतन के पूर्व दंदान उइलिक में प्राप्त भिति-चित्रों, रेशम और काष्ठ पर बने चित्रों से, जो 7-8वीं शती के हैं, हुआन-त्सांग की बात प्रमाणित होती है। खुतन का दूसरा कला केन्द्र मीरान था। यहां विशुद्ध युनानी-रोमन कला का प्रचलन था। यहां अनेक भिति-चित्र चौथी शती के हैं(वही)।
हुआन-त्सांग तदुपरान्त तुंग-हुआंग पहुंचा। तब वह एक महत्वपूर्ण बौद्ध केन्द्र था जोकि नगर के दक्षिण-पूर्व में 8 मील की दूरी पर बने सहस्त्र बुद्ध प्रतिमाओं से प्रमाणित होता है। यह स्मरण रखना होगा कि तुंग-हुआंग चीन, गांधार, युनानी-रोमन और गुप्तकालीन भारतीय संस्कृति के समन्वय का संगम था(वही)।
अन्त में 16 वर्ष की यात्रा करके 645 ई. में हुआन-त्सांग तांग सम्राट ताई-त्सुंग के समय चांग-आन पहुंच गया। चीनी सम्राट ने एक बड़ा समारोह आयोजित कर उसका सार्वजनिक अभिनन्दन किया। हुआन-त्सांग ने अपने जीवन को खतरे में डालकर भारत से लाए बौद्ध-ग्रंन्थों को सम्राट के सामने पेश किया। सम्राट ने उनके अनुवाद के लिए हुआन-त्सांग को आवश्यक मदद प्रदान की(वही)।
ह्वेनसांग(हुआन-त्सांग) के भारत प्रवास पर राहुल सांस्कृत्यायन लिखते हैं, कन्नौज के महाराज हर्षवर्धन ने उनका बहुत सम्मान किया। वह भारत में लगभग 15 वर्ष रहा। इनमें से 8 वर्ष वह सम्राट के दरबार में रहा। नालन्दा विश्वद्यिालय में आचार्य शीलभद्र के पास वह 5 वर्ष अध्ययन करते रहे। उन्होंने भारत के लगभग प्रत्येक प्रांत की यात्रा की। वह कश्गर, यर्कण्डा और खोतान के रास्ते अप्रेल 645 ईस्वी में चीन पहुंचा। भारत से लौटने पर चीनी सम्राट ताई-त्सुंग (627-650 ) ने उन्हें मंत्री पद से सम्मानित करना चाहा किन्तु ह्वेनसांग ने आदर के साथ इसे अस्वीकार कर शेष जीवन बुद्धविहार में ही बिताया। ह्वेन-सांग 65 वर्ष की अवस्था में 664 ईस्वी में परिनिब्बुत हुए थे(बौध्द संस्कृति, पृ. 421 : सम्यक प्रका. दिल्ली)।
हुआन-त्सांग ने अपना यात्रा विवरण तो लिखा ही किन्तु इसके साथ साथ उन्होंने 75 ग्रंथों का अनुवाद किया। हुआन-त्सांग ने अधिकतर योगाचार, अभिधर्म, प्रज्ञापारमिता और सर्वास्तिवादी अभिधर्म का अनुवाद किया। अनुवादों के अतिरिक्त ह्वेन-सांग ने विज्ञानवादी योगाचार की चीन में स्थापना की। उन्होंने दिग्गनाग के दो ग्रंथों न्यायमुख और आलम्बनपरीक्षा का भी अनुवाद किया(वही)।
धर्मकीर्तिजी लिखते हैं कि वह आसाम, ताम्रलिप्ती गया और वहां से दक्षिण भारत में कांजिवरम होता हुआ उसने महाराष्ट्र , वल्लभि, उज्जैन आदि प्रदेशों में भ्रमण किया। बाद में सिन्धु नदी पार कर गान्धार से पामीर के मार्ग से वह स्वदेश लौट गया (भगवान बुध्द का इतिहास और धम्मदर्शन, पृ. 386ः सम्यक प्रका. भीमनगर अकोला महा.)।
भारत के बारे में हुआन-त्सांग ने लिखा है कि नगरों तथा गामों में अन्तद्वार हैं। दीवारें उंची और मोटी हैं, मुहल्ले और गलिया घुमावदार है और सड़कें भी टेढ़ी हैं। मुख्य मार्ग गन्दे हैं और दोनों ओर की दुकानों पर उपयुक्त चिन्ह लगा दिए गए हैं। कसाई, मछियारे, नाचने वाले जल्लाद, भंगी आदि शहर के बाहर रहते हैं। आते-जाते समय ये लोग जब तक अपने घर न पहुंच जाएं सड़क के बायी ओर चलते हैं। उनके घर नीची दीवारों से घिरे हैं और उनके मोहल्ले अलग हैं (प्राचीन भारत का इतिहासः वी डी महाजन, पृ. 586ः एस. चन्द एण्ड कम्पनी लि. दिल्ली)।
नगर की दीवारें ईटों या टाइलों की बनाई जाती है। दीवारों के ऊपर के मीनार लकड़ी या बांस के बनाये जाते हैं। घरों की अटारियां और छज्जे लकड़ी के हैं जो मिट्टी या चूने के पलस्तर तथा टाइलों से ढके हुए हैं। विभिन्न इमारतों की शक्ल चीन की इमारतों जैसी ही है। सरपत या सुखी टहनियों या टाइलों या तख्तों से उन्हें ढंक दिया जाता है। दीवारें चूने या गारे से ढकी है और पवित्रता के लिए उसमें गोबर मिला दिया जाता है(वही)।
संघारामों का निर्माण में चारों कोणों पर तीन मंजीलों के बुर्ज बनाए जाते हैं। शहतीर और उभरे हुए सिरों पर विभिन्न आकारों में खोदकर मूर्तियां बनाई जाती हैं। द्वारों, खिड़कियों और नीची दीवारों पर बहुत से चित्र बनाये जाते हैं। भिक्षुओं के कमरे अन्दर से सुसज्जित और बाहर से सादे हैं। इमारत के बीचों-बीच एक ऊंचा और चौड़ा हॉल है। द्वार पूर्व की ओर खुलते हैं और राज-सिंहासन भी पूर्व की ओर मुंह किए हैं(वही)।
लोग बहुधा उजले सफेद कपड़े पहनते हैं। रंगदार या सजे हुए कपड़ों का वे मान नहीं करते। पुरुष कमर पर अपने कपड़े बांधते हैं और फिर उन्हें बगल के नीचे इकट्ठा करके शरीर पर बायी ओर लटका देते हैं(वही)।
भारत की समृद्धि से हुआन-त्सांग प्रभावित था। वह आगे लिखता है कि सोने और चांदी दोनों के सिक्के प्रचलित थे। कौड़ियां और मोती भी मुद्रा के रूप में प्रचलित थे(वही)।
लोगों का मुख्य आहार गेहूं की चपातियां, भुने हुए दाने, चीनी, घी और दूध के पदार्थ थे। कुछ अवसरों पर मछली, मृग और भेड़ का मांस भी खाया जाता था। गाय तथा कुछ जंगली जानवरों का मांस पूर्णतः वर्जित था। जो व्यक्ति नियमों का उल्लंघन करता उसे निष्कासित किया जा सकता था(वही)।
नए नगर बन गए थे और पुराने नगर समाप्त हो रहे थे। पाटलिपुत्र अब उत्तरी भारत का प्रमुख नगर नहीं रहा था और उसका स्थान कन्नौज ने ले लिया था। उसमें सैकड़ों संघाराम और 200 हिन्दू मंदिर थे। प्रयाग एक महत्वपूर्ण स्थान बन चुका था। किन्तु श्रावस्ती अब नष्ट हो रहा था और कपिलवस्तु में केवल 30 भिक्षु थे। नालन्दा और वल्लभि में जैसे स्थानों में बौध्द धर्म का जोर था(वही)।
हुआन-त्सांग बतलाता है कि रेशम, ऊन और सूत के कपड़े बनाने की कला अत्यन्त परिष्कृत थी। किसी जंगली जानवर की ऊन का बना कपड़ा भी पहना जाता था(वही)।
राजा तथा उच्च व्यक्तियों के आभूषण असाधारण थे। कीमती पत्थर का ‘तारा’ और हार उनके सिर के आभूषण हैं और उनके शरीर अंगूठियों, कंगनों तथा मालाओं से सुसज्जित हैं। धनवान व्यापारी केवल कंगन पहनते हैं। यद्यपि लोग सादे कपड़े पहनते हैं, तथापि वे आभूषणों के शौकिन प्रतीत होते थे(वही)।
औद्योगिक जीवन जातियों तथा बड़ी-बड़ी श्रेणियों तथा निगमों पर आधारित था। देश के औद्योगिक जीवन में ब्राह्मणों का कोई भाग नहीं था। खेती और परिचर्या का काम शूद्र के हाथों में था(वही)।
हुआन-त्सांग लिखता है कि जाति-प्रथा ने हिन्दू समाज को जकड़ रखा था। ब्राह्मण धर्म-कर्म करते थे। क्षत्रिय शासक वर्ग थे। राजा प्रायः क्षत्रिय होते थे। वैश्य व्यापारी तथा वणिक् थे। धनी व्यापारी सोने की वस्तुओं का व्यापार करते थे। वे प्रायः नंगे पांव जाते हैं। बहुत कम लोग पादुकाएं पहनते हैं। वे अपने दांतों पर लाल या काले निशान लगाते हैं। वे अपने बाल ऊपर बांधते हैं और कानों में छिद्र करते हैं। शारीरिक सफाई का वे बहुत ध्यान रखते है। खाने के पहले वे हाथ-मुंह धो लेते हैं। जूठन वे कभी नहीं खाते। प्रयोग करने के बाद लकड़ी तथा मिट्टी के बर्तन नष्ट कर दिए जाते हैं। धातु के बर्तनों को रगड़ कर मांजा जाता है। खाने के बाद वे अपने मुंह को दातुन से साफ करते हैं और हाथ-मुंह धो लेते हैं(वही)।
हुआन-त्सांग लिखता है कि अन्तर्जातीय विवाह नहीं होते थे। एक ही जाति के विभिन्न वर्गों में विवाह सीमित थे। भोजन तथा विवाह की दृष्टि में विभिन्न जातियों में कुछ नियन्त्रण थे लेकिन उनमें सामाजिक आचार-व्यवहार के मार्ग में ये नियन्त्रण बाधक नहीं थे। प्याज ओर लहसुन बहुत कम प्रयोग होते थे(वही)।
विधवा विवाह की प्रथा नहीं थी। उच्च वर्गों में पर्दे की प्रथा नहीं होती थी। सती प्रथा प्रचलित थी। रानी यशोमति अपने पति प्रभाकर वर्धन के साथ ही सती हो गई थी। राजश्री भी सती होने वाली थी और उसकी जीवन-रक्षा बड़ी कठिनाई से की गई(वही)।
हुआन-त्सांग लिखता है कि अनुशासन बौध्द धर्म ग्रंथों के नियमों के अनुकूल ही था। उसका उल्लंघन करने पर कड़ा दंड दिया जाता था। शिक्षा धार्मिक थी और उन्हें विहारों के माध्यम से प्रसारित किया जाता था। धार्मिक पुस्तकें लिखी हुई थी। किन्तु वेदों को मौखिक रूप से प्रचलित रखा गया था और उन्हें कागज या पत्तों पर नहीं लिखा जाता था। उस समय प्रचलित लिपि को ब्राह्मी कहा जाता था जो ब्रह्मा के मुख से निःसृत मानी जाती थी। संस्कृत विद्वान वर्ग की भाषा थी। संस्कृत व्याकरण को विधिवत् नियमों में जकड़ दिया गया था(वही)।
एक व्यक्ति की शिक्षा नौ वर्ष की आयु से तीस वर्ष की आयु तक चलती थी। शिक्षा पूर्ण होने पर गुरू को दक्षिणा दी जाती थी। कई लोग सारा जीवन अध्ययन में व्यतीत करते थे(वही)।
नालंदा की शिक्षा का वर्णन करते हुए हुआन-त्सांग ने लिखा है कि जब किसी व्यक्ति की कीर्ति सर्व-प्रसिध्द हो जाती है तो वह एक विचार-गोष्ठि का आयोजन करता है। गोष्ठि में भाग लेने वालों की योग्यता का वह अनुमान लगाता है और यदि उनमें से कोई अपनी परिष्कृत भाषा, सूक्ष्म खोज, गहन, चिंतन और अकाट्य तर्क से विशिष्टता प्राप्त कर ले तो बहुमूल्य आभूषणों से सज्जित हाथी पर बैठा कर उसके प्रशंसक उसे विहार के द्वार पर लाते हैं। इसके विपरित यदि एक व्यक्ति वाद-विवाद में हार जाए या अश्लील वाक्य प्रयुक्त करे या तर्क के नियमों का उल्लंघन करे तो उसके ऊपर कीचड़ लगा कर उसे खाई में फैंक दिया जाता है(वही)।
हुआन-त्सांग ने एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है कि एक बार लोकायत्य समुदाय के एक आचार्य ने 40 सिध्दांत लिखे और नालंदा विश्वद्यिालय के द्वार पर इस सूचना के साथ उन्हें लटका दिया कि यदि कोई व्यक्ति इन सिध्दांतों को गलत सिध्द कर दे तो उसकी विजय के उपलक्ष्य में मैं उसे अपना सिर दूंगा। हुआन-त्सांग ने इस चुनौति को स्वीकार किया और उस व्यक्ति को एक सार्वजनिक वाद-विवाद में हरा दिया। किन्तु हुआन-त्सांग ने उसे क्षमा कर दिया और वह हुआन-त्सांग का शिष्य बन गया(वही)।
शासन प्रणाली के बारे में हुआन-त्सांग ने लिखा हे कि राजभूमि 4 भागों में बंटी थी। राज-कार्य चलाने के लिए एक भाग, मन्त्रियों और कर्मचारियों को वेतन देने के लिए दूसरा भाग, प्रवीण व्यक्तियों को पुरष्कृत करने के लिए तीसरा भाग प्रवीण व्यक्तियों को पुरस्सकार देने के लिए और चौथा भाग धार्मिक सम्प्रदायों को देने के लिए है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी वस्तुओं को शांतिपूर्वक अपने पास रखता है और निर्वाह के लिए सभी खेती करते हैं। जो राजभूमि पर खेती करते हैं वे उत्पादन का छठा भाग शुल्क के रूप में देते हैं(वही)।
व्यापार करने वाले व्यक्ति अपने व्यवसाय के कारण इधर-उधर यात्रा करते हैं। थोड़ा सा धन देने पर नदियां और चौकियां यात्रियों के लिए खोल दी जाती हैं। सार्वजनिक कार्यों के लिए श्रमिकों को लगाया जाता है लेकिन उन्हें इसके लिए पारिश्रमिक दिया जाता है। पारिश्रमिक किए गए काम के अनुपात से ही दिया जाता है(वही)।
अपराधी और विद्रोही कम हैं। नियमों को तोड़ने पर, शासक की शक्ति का उल्लंघन किया जाए तो अपराधी की खोज की जाती है और दंड दिया जाता है। शारीरिक दंड नहीं दिया जाता, उन्हें केवल जीने और मरने के लिए छोड़ दिया जाता है और उन्हें मनुष्यों में नहीं गिना जाता। पितृ-भक्ति में दोषी या बेईमान है तो उसके कान और नाक काट दिए जाते हैं। अपराध की खोज करते समय दोष-स्वीकृति का प्रमाण प्राप्त करने के लिए बल-प्रयोग नहीं किया जाता था। अभियुक्त से प्रश्नोत्तर के समय यदि वह साफ-साफ उत्तर दे तो उसका दंड घटा दिया जाता है लेकिन यदि वह हठपूर्वक अपराध को स्वीकार न करें तो सत्य की गहराई तक पहुंचने के लिए परीक्षक को प्रयुक्त किया जाता है(वही)।
(भारत प्रवास 630-644 ईस्वी)
हुआन-त्सांग जन्म चीन के होनान प्रान्त में 602 र्ठस्वी में हुआ था। वे 13 वर्ष की आयु में सामणेर और 20 वर्ष की आयु में भिक्षु हो गए थे। इस समय चीन में हीनयान और महायान के अन्तर्गत अनेक और विविध बौद्ध सम्प्रदाय प्रचलित थे। हुआन-त्सांग महायान का अनुयायी था(बौद्ध धर्म का इतिहास, परिशिष्ट- 1 हुआन-त्सांग के जीवन का रेखाचित्र : डॉ. चाउ सिआंग कुआंगः सम्यक प्रका. दिल्ली)।
26 वर्ष की अवस्था में उसने चीनी राज्य शासन की वैधानिक आज्ञा प्राप्त किए बिना भारत की यात्रा शुरू की थी। चीन के पश्चिमान्त प्रान्त आधुनिक कान्सु से गोबी मरुस्थल को पार कर हामी पहुंचा। हामी से तुर्फान पहुंचा। यहां के लोग बौद्धधर्मावलम्बी थे। वे अनेक भारतीय धर्म-ग्रंथों का अनुवाद संस्कृत से तोखारिश भाषा में कर चुके थे(वही)।
हुआन-त्सांग कुछ दिन यहां के मठवासी भिक्खुओं के साथ बिता कर कु-चा की ओर प्रस्थान किया जो उस समय मध्य एशिया का सबसे महत्वपूर्ण नगर था। कु-चा के राजा सुवर्णदेव ने, जो तोखारिश-वंश का था, हुआन-त्सांग का बड़ा सत्कार किया। कु-चा में हीनयान प्रचलित था(वही)।
कु-चा से हुआन-त्सांग चाश पहुंचा। चाश से समरकन्द होता हुआ लोह दर्रे के दक्खिण ऑक्सस नदी को पार कर बैक्टिआ(जो आधुनिक अफगानिस्तान का उत्तरी भाग है ) में प्रवेश किया। बैक्टिआ के बाद उसने हिम पर्वत(हिन्दूकुश पर्वत ) को पार किया। अंत में कारकोत्तल और दंदानेशिकन दर्रों को पार करके हुआन-त्सांग बामियान पहुंचाए जहां 10 बुद्धविहार थे जिनमें कई हजार धर्मार्थी और भिक्खु रहते थे(वही)।
हुआन-त्सांग जब बामियान से गांधार पहुंचा, जहां महायान के दो प्रमुख दार्शनिकों- पेशावर निवासी असंग और वसुबन्धु का आर्विभाव हुआ था, उसे भारी निराशा हुई। क्योंकि यहां एक शताब्दी पूर्व हुए हूणों के आक्रमण ने सारी बौद्ध सभ्यता नष्ट कर दी थी। ग्राम और नगर जनशून्य थे और बौद्ध स्तूप खण्डहर हो रहे थे (वही)।
पेशावर से चलकर हुआन-त्सांग काबुल नदी पार कर पंजाब की महानगरी तक्षशिला देखने गया। यह प्राचीन राजधानी सिकन्दर के समय में युनानियों को ज्ञात थी और आगे चलकर भारत के सम्राट अशोक ने उसे अपने साम्राज्य के पश्चिमोत्तर भाग की राजधानी बनाकर अलंकृत किया था। अशोक के बाद तक्षशिला पर यूनानियों को पुनः अधिकार हो गया। युनानी बौद्धकला की चूर्ण लेप निर्मित जो लधु मूर्तियां सर जान मार्शल को यहां से सैकड़ों की संख्या में प्राप्त हुई हैं, से सिद्ध होता है कि इस नगर के मूर्तिकारों ने गांधार-कला की गौरवशाली परम्परा को हूणों के आक्रमण के समय(5 शती इ्र.) तक जारी रखा था(वही)।
राजनीतिक दृष्टि से सातवीं शताब्दी में तक्षशिला काश्मीर राज्य के अन्तर्गत था, जो सदा से धार्मिक आन्दोलनों का केन्द्र रहा है। नवीं शताब्दी में वह शैव सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र था। हुआन-त्सांग के समय वहां बौद्ध धर्म ही प्रबल था(वही)।
जब हुआन-त्सांग कश्मीर की राजधानी प्रवरपुर(वर्तमान श्रीनगर) पहुंचा तो वहां का राजा उनसे मिलने स्वयं आया। अगले दिन धर्म के गूढ़ प्रश्नों पर प्रवचन देने उसने हुआन-त्सांग को आमंत्रित किया। जब उसने यह जाना कि विद्यानंराग ही उसे(हुआन-त्सांग) को सुदूर देश से खींच लाया है और पढ़ने के लिए उसके पास ग्रंथ नहीं हैं तो राजा ने उसकी सेवा में बौद्ध-ग्रंथों तथा अन्य उत्तरकालीन दार्शनिक ग्रंथों को प्रस्तुत करने के लिए 20 लिपिक नियुक्त कर दिए। हुआन-त्सांग कश्मीर में करीब 2 वर्ष (631- 33 ई.) ग्रंथों का अध्ययन करते रहा(वही)।
कश्मीर से चलकर हुआन-तसांग पंजाब के साकल और जालन्धर नगर पहुंचा जो एक महत्वपूर्ण बौद्ध केन्द्र था। यहां 50 से अधिक बुद्धविहार थे। जालन्धर से मथुरा होता हुआ वह कान्यकुब्ज (वर्तमान कनौज) पहुंचा। उस समय कनौज पर सम्राट हर्षवर्द्धन का शासन था। हर्षवर्द्धन तब राजधानी के बाहर थे, तब भी राज्य का शासन और नगर की वैभवता देखकर हुआन-त्सांग चकित रह गया। कनौज के भद्र विहार में ति-पिटकों तथा उनकी टीकाओं के अध्ययन के लिए वह करीब 3 माह रुका रहा। यहां से गंगा पार कर उसने अयोध्या के देश अवध में प्रवेश किया, जहां असंग और वसुबन्धु की कीर्ति अभी भी व्याप्त थी। यहां से प्रयाग और प्रयाग से वह एक अन्य गुप्तकालीन राजधानी यमुना तट पर स्थित कौशांबी(वर्तमान कोसम) को गया। वहां उसने बुद्ध के आगमन के स्मारकों, अशोक के स्तूप, दुमंजिले मण्डप, जिसमें वसुबन्धु ने अपना ग्रंथ लिखा था, आम्रवन, जहां असंग कुछ दिन रहा, आदि के दर्शन किए(वही)।
कौशम्बी के बाद हुआन-त्सांग सावस्थी(वर्तमान सहेत-महेत) गया। बुद्ध के समय यह प्राचीन राज्य कोसल(वर्तमान उ. प्र. के अवध) की राजधानी थी। सावस्थी में ही जेतवन था। इसे बुद्ध के समकालीन धनाठ्य सेट्ठि अनाथपिण्डक ने भिक्खु-संघ को समर्पित किया था। किन्तु इतनी शताब्दियां बीतने के बाद भी उसके निर्मल सरोवर, श्यामल हरीतिमा और असंख्य फूलों को देखकर हुआन-त्सांग ने उसकी बड़ी प्रशंसा की। अशोक ने इस स्थान पर एक शिलालेख स्थापित करवाया था, जिस पर वृषभ और धम्मचक्र बने थे किन्तु हुआन-त्सांग के समय यह जर्जरभूत मठ के निकट केवल यही स्तम्भ अवशिष्ट थे(वही)।
तदुपरान्त वह बुद्ध के जन्म स्थान कपिलवस्तु पहुंचा। सनद रहे, पुराततववेत्ताओं ने इसे नेपाल की तराई में स्थित तिलौराकोट में स्थापित किया है। यही कपिलवस्तु के उत्तरपूर्व में लुम्बिनी वन था। हुआन-त्सांग कपिलवस्तु के बाद कुसीनगर गया जहां बुद्ध ने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था। यहां ये वह सारनाथ आया जहां बुद्ध ने प्रथम धर्मोपदेश दिया था। सारनाथ से वह वैशाली पहुंचा, जहां बुद्ध महापरिनिर्वाण के 100 वर्ष बाद दूसरी बौद्ध-संगति हुई थी। सारनाथ से बुद्धगया पहुंचा जहां भगवान बुद्ध ने बोधि प्राप्त की थी। यहां उसने बोधि वृक्ष के दर्शन किए और अन्य पवित्रा स्थलों की पूजा की(वही)।
बुद्धगया के उत्तरपूर्व में स्थित नालन्दा विश्वविद्यालय 7वीं सदी में विश्व में ख्याति प्राप्त शिक्षा-संस्थान था। नालन्दा में हुआन-त्सांग का बड़ा आत्मीय स्वागत हुआ। पताकाओं, छत्रों और पुष्पों के साथ 200 भिक्खुओं तथा करीब 1000 उपासकों ने जुलूस बना कर उसका स्वागत किया। वहां के आचार्य शीलभद्र के चरणों में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की। शीलभद्र ने उसके सामने विज्ञानवाद के सारे रहस्य खोल कर रख दिए। महायानी विज्ञानवाद के संस्थापक असंग और वसुबन्धु के उत्तराधिकारी तर्काचार्य ज्ञान हुए। ज्ञान के शिष्य नालन्दा के प्रधानाचार्य धम्मपाल और धम्मपाल के शिष्य शीलभद्र थे(वही)।
राजगृह से नालन्दा आने के बाद हुआन-त्सांग मगध की एतिहासिक राजधानी पाटलीपुत्र गया। यहीं प्रथम मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ने यूनानी राजदूतों को राजनीतिक मान्यता दी थी(वही)।
हुआन-त्सांग 638 ई. में गंगा पार कर बंगाल की खाड़ी में स्थित ताम्रलिप्ति(वर्तमान में तामलुक) बन्दरगाह पहुंचा। हुआन-तसांग के पूर्व फाह्यान तामंलिप्ति होता हुआ समुद्री मार्ग से सिंहलद्वीप गया था। किन्तु उसके द्वारा समुद्री यात्रा का लोमहर्षक वर्णन सुन उसने दक्षिणी भारत से पाक जलडमरूमध्य मार्ग द्वारा जाने का निश्चय किया(वही)।
तदानुसार हुआन-त्सांग भागलपुर से उड़िसा और आन्ध्र पहुंचा। तब आन्ध्र बौद्ध संस्कृति का एक केन्द्र था। 5वीं शतीं के उत्तरार्ध में विख्यात बौद्धाचार्य ज्ञान ने कई ग्रंन्थों का प्रणयन अमरावती में किया था। कुछ महिनों बाद हुआन-त्सांग पल्लव राज्य की राजधानी कांचीवरम पहुंचा(वही)।
पल्ल्व राज्य से निकलकर मलाकोट्टाई होता हुआ वह महाराष्ट आया। यहां अद्भूत भिति-चित्रों से अलंकृत अजंता की गुफाएं हैं। महाराष्ट से वह मालवा, गुजरात और पुनः सिन्ध होता हुआ नालन्दा पहुंचा। इस मध्य उसे कामरूप के राजा और साथ ही थानेसर के सम्राट हर्षवर्द्धन का उनके राज्य में कुछ समय व्यतीत करने का आमंत्राण मिला। उसने मार्ग की अतीव दुर्लभता को ध्यान में रखकर सम्राट हर्षवर्धन का आमंत्रण स्वीकार कर लिया(वही)।
शिलादित्य हर्ष ब्रम्हपुत्र से गुजरात और विन्ध्य पर्वत तक प्रायः समग्र उत्तर भारत का शासक था। हुआन-त्सांग के पहुंचने पर हर्ष ने उसके चरणों पर शिर रख कर नमन किया। सम्राट हर्षवर्द्धन ने एक विराट दार्शनिक शास्त्रार्थ का आयोजन किया। ईस्वीं 643 के आरम्भ में राजधानी कन्नौज में आयोजित इस शास्त्रार्थ तथा गंगा-यमुना संगम प्रयाग (वर्तमान इलाहाबाद ) में आयोजित दूसरे शास्त्रार्थ के समाप्त होने के बाद हुआन-त्सांग ने चीन लौटने का निश्चय किया(वही)।
तुर्फान नरेश ने तोखारिश और तुर्क देशों में उसकी यात्रा के लिए प्रबन्ध कर रखा था। हुआन-त्सांग को उपहारों से लाद देने के उपरान्त हर्ष ने उसे जाने की आज्ञा दी। यमुना तट स्थित कौशाम्बी होकर वह कन्नौज, जालन्धर, तक्षशिला होते हुए 644 ई. में उसने सिन्धु नदी पार की(वही)।
गांधार की छोटी-छोटी रियासतो के राजा कपिसा से विदा होकर हुआन-तसांग ने 646 ई. में हिन्दूकुश और पामीर होकर काशगर जाने वाले मार्ग से प्रस्थान किया। काशगर के निवासी हीनयानी थे। काशगर से वह महायानी प्रबल देश यारकन्द पहुंचा। यहां से लगभग सित. 644 ई. में वह एक प्राचीन और सभ्य देश खुतन पहुंचा। खुतन के लोग श्रद्धावान, साहित्य और कला के प्रेमी थे। सर ऑरेल स्टाइन को खुतन के पूर्व दंदान उइलिक में प्राप्त भिति-चित्रों, रेशम और काष्ठ पर बने चित्रों से, जो 7-8वीं शती के हैं, हुआन-त्सांग की बात प्रमाणित होती है। खुतन का दूसरा कला केन्द्र मीरान था। यहां विशुद्ध युनानी-रोमन कला का प्रचलन था। यहां अनेक भिति-चित्र चौथी शती के हैं(वही)।
हुआन-त्सांग तदुपरान्त तुंग-हुआंग पहुंचा। तब वह एक महत्वपूर्ण बौद्ध केन्द्र था जोकि नगर के दक्षिण-पूर्व में 8 मील की दूरी पर बने सहस्त्र बुद्ध प्रतिमाओं से प्रमाणित होता है। यह स्मरण रखना होगा कि तुंग-हुआंग चीन, गांधार, युनानी-रोमन और गुप्तकालीन भारतीय संस्कृति के समन्वय का संगम था(वही)।
अन्त में 16 वर्ष की यात्रा करके 645 ई. में हुआन-त्सांग तांग सम्राट ताई-त्सुंग के समय चांग-आन पहुंच गया। चीनी सम्राट ने एक बड़ा समारोह आयोजित कर उसका सार्वजनिक अभिनन्दन किया। हुआन-त्सांग ने अपने जीवन को खतरे में डालकर भारत से लाए बौद्ध-ग्रंन्थों को सम्राट के सामने पेश किया। सम्राट ने उनके अनुवाद के लिए हुआन-त्सांग को आवश्यक मदद प्रदान की(वही)।
ह्वेनसांग(हुआन-त्सांग) के भारत प्रवास पर राहुल सांस्कृत्यायन लिखते हैं, कन्नौज के महाराज हर्षवर्धन ने उनका बहुत सम्मान किया। वह भारत में लगभग 15 वर्ष रहा। इनमें से 8 वर्ष वह सम्राट के दरबार में रहा। नालन्दा विश्वद्यिालय में आचार्य शीलभद्र के पास वह 5 वर्ष अध्ययन करते रहे। उन्होंने भारत के लगभग प्रत्येक प्रांत की यात्रा की। वह कश्गर, यर्कण्डा और खोतान के रास्ते अप्रेल 645 ईस्वी में चीन पहुंचा। भारत से लौटने पर चीनी सम्राट ताई-त्सुंग (627-650 ) ने उन्हें मंत्री पद से सम्मानित करना चाहा किन्तु ह्वेनसांग ने आदर के साथ इसे अस्वीकार कर शेष जीवन बुद्धविहार में ही बिताया। ह्वेन-सांग 65 वर्ष की अवस्था में 664 ईस्वी में परिनिब्बुत हुए थे(बौध्द संस्कृति, पृ. 421 : सम्यक प्रका. दिल्ली)।
हुआन-त्सांग ने अपना यात्रा विवरण तो लिखा ही किन्तु इसके साथ साथ उन्होंने 75 ग्रंथों का अनुवाद किया। हुआन-त्सांग ने अधिकतर योगाचार, अभिधर्म, प्रज्ञापारमिता और सर्वास्तिवादी अभिधर्म का अनुवाद किया। अनुवादों के अतिरिक्त ह्वेन-सांग ने विज्ञानवादी योगाचार की चीन में स्थापना की। उन्होंने दिग्गनाग के दो ग्रंथों न्यायमुख और आलम्बनपरीक्षा का भी अनुवाद किया(वही)।
धर्मकीर्तिजी लिखते हैं कि वह आसाम, ताम्रलिप्ती गया और वहां से दक्षिण भारत में कांजिवरम होता हुआ उसने महाराष्ट्र , वल्लभि, उज्जैन आदि प्रदेशों में भ्रमण किया। बाद में सिन्धु नदी पार कर गान्धार से पामीर के मार्ग से वह स्वदेश लौट गया (भगवान बुध्द का इतिहास और धम्मदर्शन, पृ. 386ः सम्यक प्रका. भीमनगर अकोला महा.)।
भारत के बारे में हुआन-त्सांग ने लिखा है कि नगरों तथा गामों में अन्तद्वार हैं। दीवारें उंची और मोटी हैं, मुहल्ले और गलिया घुमावदार है और सड़कें भी टेढ़ी हैं। मुख्य मार्ग गन्दे हैं और दोनों ओर की दुकानों पर उपयुक्त चिन्ह लगा दिए गए हैं। कसाई, मछियारे, नाचने वाले जल्लाद, भंगी आदि शहर के बाहर रहते हैं। आते-जाते समय ये लोग जब तक अपने घर न पहुंच जाएं सड़क के बायी ओर चलते हैं। उनके घर नीची दीवारों से घिरे हैं और उनके मोहल्ले अलग हैं (प्राचीन भारत का इतिहासः वी डी महाजन, पृ. 586ः एस. चन्द एण्ड कम्पनी लि. दिल्ली)।
नगर की दीवारें ईटों या टाइलों की बनाई जाती है। दीवारों के ऊपर के मीनार लकड़ी या बांस के बनाये जाते हैं। घरों की अटारियां और छज्जे लकड़ी के हैं जो मिट्टी या चूने के पलस्तर तथा टाइलों से ढके हुए हैं। विभिन्न इमारतों की शक्ल चीन की इमारतों जैसी ही है। सरपत या सुखी टहनियों या टाइलों या तख्तों से उन्हें ढंक दिया जाता है। दीवारें चूने या गारे से ढकी है और पवित्रता के लिए उसमें गोबर मिला दिया जाता है(वही)।
संघारामों का निर्माण में चारों कोणों पर तीन मंजीलों के बुर्ज बनाए जाते हैं। शहतीर और उभरे हुए सिरों पर विभिन्न आकारों में खोदकर मूर्तियां बनाई जाती हैं। द्वारों, खिड़कियों और नीची दीवारों पर बहुत से चित्र बनाये जाते हैं। भिक्षुओं के कमरे अन्दर से सुसज्जित और बाहर से सादे हैं। इमारत के बीचों-बीच एक ऊंचा और चौड़ा हॉल है। द्वार पूर्व की ओर खुलते हैं और राज-सिंहासन भी पूर्व की ओर मुंह किए हैं(वही)।
लोग बहुधा उजले सफेद कपड़े पहनते हैं। रंगदार या सजे हुए कपड़ों का वे मान नहीं करते। पुरुष कमर पर अपने कपड़े बांधते हैं और फिर उन्हें बगल के नीचे इकट्ठा करके शरीर पर बायी ओर लटका देते हैं(वही)।
भारत की समृद्धि से हुआन-त्सांग प्रभावित था। वह आगे लिखता है कि सोने और चांदी दोनों के सिक्के प्रचलित थे। कौड़ियां और मोती भी मुद्रा के रूप में प्रचलित थे(वही)।
लोगों का मुख्य आहार गेहूं की चपातियां, भुने हुए दाने, चीनी, घी और दूध के पदार्थ थे। कुछ अवसरों पर मछली, मृग और भेड़ का मांस भी खाया जाता था। गाय तथा कुछ जंगली जानवरों का मांस पूर्णतः वर्जित था। जो व्यक्ति नियमों का उल्लंघन करता उसे निष्कासित किया जा सकता था(वही)।
नए नगर बन गए थे और पुराने नगर समाप्त हो रहे थे। पाटलिपुत्र अब उत्तरी भारत का प्रमुख नगर नहीं रहा था और उसका स्थान कन्नौज ने ले लिया था। उसमें सैकड़ों संघाराम और 200 हिन्दू मंदिर थे। प्रयाग एक महत्वपूर्ण स्थान बन चुका था। किन्तु श्रावस्ती अब नष्ट हो रहा था और कपिलवस्तु में केवल 30 भिक्षु थे। नालन्दा और वल्लभि में जैसे स्थानों में बौध्द धर्म का जोर था(वही)।
हुआन-त्सांग बतलाता है कि रेशम, ऊन और सूत के कपड़े बनाने की कला अत्यन्त परिष्कृत थी। किसी जंगली जानवर की ऊन का बना कपड़ा भी पहना जाता था(वही)।
राजा तथा उच्च व्यक्तियों के आभूषण असाधारण थे। कीमती पत्थर का ‘तारा’ और हार उनके सिर के आभूषण हैं और उनके शरीर अंगूठियों, कंगनों तथा मालाओं से सुसज्जित हैं। धनवान व्यापारी केवल कंगन पहनते हैं। यद्यपि लोग सादे कपड़े पहनते हैं, तथापि वे आभूषणों के शौकिन प्रतीत होते थे(वही)।
औद्योगिक जीवन जातियों तथा बड़ी-बड़ी श्रेणियों तथा निगमों पर आधारित था। देश के औद्योगिक जीवन में ब्राह्मणों का कोई भाग नहीं था। खेती और परिचर्या का काम शूद्र के हाथों में था(वही)।
हुआन-त्सांग लिखता है कि जाति-प्रथा ने हिन्दू समाज को जकड़ रखा था। ब्राह्मण धर्म-कर्म करते थे। क्षत्रिय शासक वर्ग थे। राजा प्रायः क्षत्रिय होते थे। वैश्य व्यापारी तथा वणिक् थे। धनी व्यापारी सोने की वस्तुओं का व्यापार करते थे। वे प्रायः नंगे पांव जाते हैं। बहुत कम लोग पादुकाएं पहनते हैं। वे अपने दांतों पर लाल या काले निशान लगाते हैं। वे अपने बाल ऊपर बांधते हैं और कानों में छिद्र करते हैं। शारीरिक सफाई का वे बहुत ध्यान रखते है। खाने के पहले वे हाथ-मुंह धो लेते हैं। जूठन वे कभी नहीं खाते। प्रयोग करने के बाद लकड़ी तथा मिट्टी के बर्तन नष्ट कर दिए जाते हैं। धातु के बर्तनों को रगड़ कर मांजा जाता है। खाने के बाद वे अपने मुंह को दातुन से साफ करते हैं और हाथ-मुंह धो लेते हैं(वही)।
हुआन-त्सांग लिखता है कि अन्तर्जातीय विवाह नहीं होते थे। एक ही जाति के विभिन्न वर्गों में विवाह सीमित थे। भोजन तथा विवाह की दृष्टि में विभिन्न जातियों में कुछ नियन्त्रण थे लेकिन उनमें सामाजिक आचार-व्यवहार के मार्ग में ये नियन्त्रण बाधक नहीं थे। प्याज ओर लहसुन बहुत कम प्रयोग होते थे(वही)।
विधवा विवाह की प्रथा नहीं थी। उच्च वर्गों में पर्दे की प्रथा नहीं होती थी। सती प्रथा प्रचलित थी। रानी यशोमति अपने पति प्रभाकर वर्धन के साथ ही सती हो गई थी। राजश्री भी सती होने वाली थी और उसकी जीवन-रक्षा बड़ी कठिनाई से की गई(वही)।
हुआन-त्सांग लिखता है कि अनुशासन बौध्द धर्म ग्रंथों के नियमों के अनुकूल ही था। उसका उल्लंघन करने पर कड़ा दंड दिया जाता था। शिक्षा धार्मिक थी और उन्हें विहारों के माध्यम से प्रसारित किया जाता था। धार्मिक पुस्तकें लिखी हुई थी। किन्तु वेदों को मौखिक रूप से प्रचलित रखा गया था और उन्हें कागज या पत्तों पर नहीं लिखा जाता था। उस समय प्रचलित लिपि को ब्राह्मी कहा जाता था जो ब्रह्मा के मुख से निःसृत मानी जाती थी। संस्कृत विद्वान वर्ग की भाषा थी। संस्कृत व्याकरण को विधिवत् नियमों में जकड़ दिया गया था(वही)।
एक व्यक्ति की शिक्षा नौ वर्ष की आयु से तीस वर्ष की आयु तक चलती थी। शिक्षा पूर्ण होने पर गुरू को दक्षिणा दी जाती थी। कई लोग सारा जीवन अध्ययन में व्यतीत करते थे(वही)।
नालंदा की शिक्षा का वर्णन करते हुए हुआन-त्सांग ने लिखा है कि जब किसी व्यक्ति की कीर्ति सर्व-प्रसिध्द हो जाती है तो वह एक विचार-गोष्ठि का आयोजन करता है। गोष्ठि में भाग लेने वालों की योग्यता का वह अनुमान लगाता है और यदि उनमें से कोई अपनी परिष्कृत भाषा, सूक्ष्म खोज, गहन, चिंतन और अकाट्य तर्क से विशिष्टता प्राप्त कर ले तो बहुमूल्य आभूषणों से सज्जित हाथी पर बैठा कर उसके प्रशंसक उसे विहार के द्वार पर लाते हैं। इसके विपरित यदि एक व्यक्ति वाद-विवाद में हार जाए या अश्लील वाक्य प्रयुक्त करे या तर्क के नियमों का उल्लंघन करे तो उसके ऊपर कीचड़ लगा कर उसे खाई में फैंक दिया जाता है(वही)।
हुआन-त्सांग ने एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है कि एक बार लोकायत्य समुदाय के एक आचार्य ने 40 सिध्दांत लिखे और नालंदा विश्वद्यिालय के द्वार पर इस सूचना के साथ उन्हें लटका दिया कि यदि कोई व्यक्ति इन सिध्दांतों को गलत सिध्द कर दे तो उसकी विजय के उपलक्ष्य में मैं उसे अपना सिर दूंगा। हुआन-त्सांग ने इस चुनौति को स्वीकार किया और उस व्यक्ति को एक सार्वजनिक वाद-विवाद में हरा दिया। किन्तु हुआन-त्सांग ने उसे क्षमा कर दिया और वह हुआन-त्सांग का शिष्य बन गया(वही)।
शासन प्रणाली के बारे में हुआन-त्सांग ने लिखा हे कि राजभूमि 4 भागों में बंटी थी। राज-कार्य चलाने के लिए एक भाग, मन्त्रियों और कर्मचारियों को वेतन देने के लिए दूसरा भाग, प्रवीण व्यक्तियों को पुरष्कृत करने के लिए तीसरा भाग प्रवीण व्यक्तियों को पुरस्सकार देने के लिए और चौथा भाग धार्मिक सम्प्रदायों को देने के लिए है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी वस्तुओं को शांतिपूर्वक अपने पास रखता है और निर्वाह के लिए सभी खेती करते हैं। जो राजभूमि पर खेती करते हैं वे उत्पादन का छठा भाग शुल्क के रूप में देते हैं(वही)।
व्यापार करने वाले व्यक्ति अपने व्यवसाय के कारण इधर-उधर यात्रा करते हैं। थोड़ा सा धन देने पर नदियां और चौकियां यात्रियों के लिए खोल दी जाती हैं। सार्वजनिक कार्यों के लिए श्रमिकों को लगाया जाता है लेकिन उन्हें इसके लिए पारिश्रमिक दिया जाता है। पारिश्रमिक किए गए काम के अनुपात से ही दिया जाता है(वही)।
अपराधी और विद्रोही कम हैं। नियमों को तोड़ने पर, शासक की शक्ति का उल्लंघन किया जाए तो अपराधी की खोज की जाती है और दंड दिया जाता है। शारीरिक दंड नहीं दिया जाता, उन्हें केवल जीने और मरने के लिए छोड़ दिया जाता है और उन्हें मनुष्यों में नहीं गिना जाता। पितृ-भक्ति में दोषी या बेईमान है तो उसके कान और नाक काट दिए जाते हैं। अपराध की खोज करते समय दोष-स्वीकृति का प्रमाण प्राप्त करने के लिए बल-प्रयोग नहीं किया जाता था। अभियुक्त से प्रश्नोत्तर के समय यदि वह साफ-साफ उत्तर दे तो उसका दंड घटा दिया जाता है लेकिन यदि वह हठपूर्वक अपराध को स्वीकार न करें तो सत्य की गहराई तक पहुंचने के लिए परीक्षक को प्रयुक्त किया जाता है(वही)।
No comments:
Post a Comment