विपस्सना
बुद्ध सांसारिक-बंधन में पड़े शक्य राजकुमार नन्द को निर्वाण की ओर प्रशस्त कराते हैं, उसे अर्हत की अवस्था में पहुंचाते हैं। परन्तु इस सारे उपाय-कौशल में वे कहीं भी प्राणायाम की चर्चा नहीं करते, न आसनों की और नहीं उस सारे दूसरे पाखण्ड की जो योग के नाम पर प्रचारित-प्रसारित किया जाता है। सनद रहे, इसमें 'विपस्सना' का भी उल्लेख नहीं है(सौन्दरनन्द महाकाव्य: एक अध्ययन; पृ. 110: डॉ सुरेन्द अज्ञात)।
बौद्ध परम्परा में योग मन के इधर-उधर भटकने को रोकने का नाम है, न कि व्यायाम, जैसे कि योग गुरु प्रदर्शन करते हैं. योग चित सम्मोहन की स्थिति भी नहीं है, जैसे कि ओशो रजनीश के अनुयायी समझते हैं(वही )।
बौद्ध परम्परा में ध्यान निर्वाण प्राप्ति की दिशा में एक साधन है। ध्यान, केम्पों में नहीं एकांत में लगाया जाता है। जबकि विपस्सना केन्द्रों के मार्फ़त ध्यान का, आजकल बाजारीकरण/व्यवसायीकरण हो गया है. इन विपस्सना केन्द्रों में महीनों साधना किए साधक/ भिक्खु सामाजिक आंदोलनों से अलिप्त और विमुख हो रहे हैं। क्या वे सारे योग-केम्पों , सारी विपस्सनाओं आदि के बावजूद व्यक्तिगत सुख-सुविधा और समृद्धि तक ही सीमित होकर नहीं रह गए हैं ? हमारे कई भिक्खुओं/विपस्सनाचार्यों का ध्यान, धम्म-देशना से कम अपनी सुख-सुविधा और मान-सम्मान पर अधिक रहता है(वही, 110-111)।
समाधि
सम्बोधि प्राप्ति के बारे में ऐसा नहीं है कि अचानक आसमान से बिजली चमकी और ज्ञान हो गया। ऐसाk भी नहीं है कि कहीं किसी प्रकार का प्रकाश देखा और ज्ञान हो गया। इसके उलट, ज्ञान वास्तविकता को निरंतर समझने के प्रयास, सूक्ष्म पर्यावलोकन एवं चिंतन का परिणाम है। यह न तो अकस्मात कौंध जाने वली बिजली की तरह है और न ही ऐसा ही है कि समाधि लगाईं और ज्ञान प्राप्त हो गया।
बौद्ध दर्शन में समाधि अष्टांग मार्ग का एक अंग है- वह भी सम्यक समाधि। इसमें प्राणायाम,धोती क्रिया, नेतिकर्म, आसनों की बाजीगरी, विपस्सना आदी कुछ नहीं है। न इसमें किसी मन्त्र, शब्द या ध्वनी के जाप, किसी की भक्ति, किसी व्यक्ति विशेष की मूर्ति के ध्यान, किसी विशेष तरह के या विशेष रंग के वस्त्र पहनने आदि की बात है, न व्रत/उपवास करने की चर्चा है , न जटाएं रखने , सिर या शारीर पर रख डालने, कान फाड़ने आदि का कोई संकेत है(पृ 117 )।
बुद्ध सांसारिक-बंधन में पड़े शक्य राजकुमार नन्द को निर्वाण की ओर प्रशस्त कराते हैं, उसे अर्हत की अवस्था में पहुंचाते हैं। परन्तु इस सारे उपाय-कौशल में वे कहीं भी प्राणायाम की चर्चा नहीं करते, न आसनों की और नहीं उस सारे दूसरे पाखण्ड की जो योग के नाम पर प्रचारित-प्रसारित किया जाता है। सनद रहे, इसमें 'विपस्सना' का भी उल्लेख नहीं है(सौन्दरनन्द महाकाव्य: एक अध्ययन; पृ. 110: डॉ सुरेन्द अज्ञात)।
बौद्ध परम्परा में योग मन के इधर-उधर भटकने को रोकने का नाम है, न कि व्यायाम, जैसे कि योग गुरु प्रदर्शन करते हैं. योग चित सम्मोहन की स्थिति भी नहीं है, जैसे कि ओशो रजनीश के अनुयायी समझते हैं(वही )।
बौद्ध परम्परा में ध्यान निर्वाण प्राप्ति की दिशा में एक साधन है। ध्यान, केम्पों में नहीं एकांत में लगाया जाता है। जबकि विपस्सना केन्द्रों के मार्फ़त ध्यान का, आजकल बाजारीकरण/व्यवसायीकरण हो गया है. इन विपस्सना केन्द्रों में महीनों साधना किए साधक/ भिक्खु सामाजिक आंदोलनों से अलिप्त और विमुख हो रहे हैं। क्या वे सारे योग-केम्पों , सारी विपस्सनाओं आदि के बावजूद व्यक्तिगत सुख-सुविधा और समृद्धि तक ही सीमित होकर नहीं रह गए हैं ? हमारे कई भिक्खुओं/विपस्सनाचार्यों का ध्यान, धम्म-देशना से कम अपनी सुख-सुविधा और मान-सम्मान पर अधिक रहता है(वही, 110-111)।
समाधि
सम्बोधि प्राप्ति के बारे में ऐसा नहीं है कि अचानक आसमान से बिजली चमकी और ज्ञान हो गया। ऐसाk भी नहीं है कि कहीं किसी प्रकार का प्रकाश देखा और ज्ञान हो गया। इसके उलट, ज्ञान वास्तविकता को निरंतर समझने के प्रयास, सूक्ष्म पर्यावलोकन एवं चिंतन का परिणाम है। यह न तो अकस्मात कौंध जाने वली बिजली की तरह है और न ही ऐसा ही है कि समाधि लगाईं और ज्ञान प्राप्त हो गया।
बौद्ध दर्शन में समाधि अष्टांग मार्ग का एक अंग है- वह भी सम्यक समाधि। इसमें प्राणायाम,धोती क्रिया, नेतिकर्म, आसनों की बाजीगरी, विपस्सना आदी कुछ नहीं है। न इसमें किसी मन्त्र, शब्द या ध्वनी के जाप, किसी की भक्ति, किसी व्यक्ति विशेष की मूर्ति के ध्यान, किसी विशेष तरह के या विशेष रंग के वस्त्र पहनने आदि की बात है, न व्रत/उपवास करने की चर्चा है , न जटाएं रखने , सिर या शारीर पर रख डालने, कान फाड़ने आदि का कोई संकेत है(पृ 117 )।
No comments:
Post a Comment