Friday, August 30, 2019

दुब्बलस्स मतिमता

मतिमता
 (युक्ति )
अतीते एकस्मिं वने सीहो मिगराजा होति।
अतीत में एक वन में मृगराज सिंह थे।
तस्मिं येव वने एको ससो होति।
उसी वन में एक खरगोश था।
सीहो संस आह- अहं तुवं खादामि।
सींह ने खरगोश से कहा- मैं तुम्हें खाता हूॅं।
ससो वदति।
खरगोश कहता है।
मिगराज, मा मं खाद।
अस्मिं वने अञ्ञो पि सीहो अत्थि।
इस वन में दूसरा भी सींह है।
सो ‘अहं मिगिन्दो’ ति वदति।
वह ‘मैं मृगराज हूॅं’’ ऐसा कहता है।
महाराज, सो एकस्मिं उदपाने वसति।
महाराज, वह एक जलाशय में रहता है।
तं वस्सतु।
उसे देखें।
सीहो उदपानं गन्त्वा पस्सति।
सींह जलाशय जा कर देखता है।
उदपाने अत्तनो छाया दिस्वा ‘अयं अञ्ञो सीहो‘ ति चिन्तेसि।
जलाशय में अपना छाया देखकर ‘यह अन्य सींह है’ ऐसा सोचने लगा।
सीहनाद नदित्वा तं अपरं सीहं हन्तुं खिप्पं उदपाने पतति।
सींह गर्जना कर उस दूसरे सींह की हत्या करने शीघ्र जलाशय में कूदता है।
मरति च।
और मरता है।
एवं दुब्बलेन पि मतिमता ससेन बलवा सीहो घातितो।
इस प्रकार कमजोर खरगोश के युक्ति से बलवान सींह का घात हुआ।

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